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रघुवंश।

दिशाओं के जीतने वाले राजा रघु, और, उसके अनन्तर अज को पाकर जिस तरह पृथ्वी कृतार्थ हुई थी—जिस तरह वह शोभा और समृद्धि से सम्पन्न हो गई थी—उसी तरह वह दशरथ जैसे परम प्रतापी स्वामी को पाकर भी शोभाशालिनी और समृद्धिमती हुई। दशरथ किसी भी बात में अपने पिता और पितामह से कम न था। अतएव उसके समय में पृथ्वी पर सुखसमृद्धि और शोभा-सौन्दर्य्य आदि की कमी हो कैसे सकती थी? सच तो यह है कि किसी किसी बात में राजा दशरथ अपने पूर्वजों से भी आगे बढ़ गया। सब के साथ एक सा न्याय करने में उसने धर्म्मराज का, दानपात्रों पर काञ्चन की वृष्टि करने में कुबेर का, दुराचारियों को दण्ड देने में वरुण का, और तेजस्विता तथा प्रताप में सूर्य्य का अनुकरण किया।

राजा दशरथ दिन-रात इसी प्रयत्न में रत रहने लगा कि किस प्रकार उसके राज्य का अभ्युदय हो और किस प्रकार उसका वैभव बढ़े। इस कारण और विषयों की तरफ़ उसका ध्यान ही न गया। न उसने कभी जुआ खेला; न वह अपनी नवयौवना रानी पर ही अधिक आसक्त हुआ, न उसने शिकार ही से विशेष प्रीति रक्खी, और न वह उस मदिरा ही के वश हुआ जिसके भीतर चन्द्रमा का झिलमिलाता हुआ प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा था और जिसे वह गहने की तरह धारण किये हुए थी। राजा लोग विशेष करके इन्हीं व्यसनों में फँस जाते हैं। परन्तु इनमें से एक भी व्यसन दशरथ के चित्त को अपनी तरफ़ न खींच सका। इन्द्र, एक प्रकार से, यद्यपि दशरथ का भी प्रभु था—इन्द्र का स्वामित्व यद्यपि दशरथ पर भी था—तथापि उससे भी दशरथ ने कभी दीन वचन नहीं कहा। हँसी-दिल्लगी में भी उसने कभी झूठ नहीं बोला। पर, अपने शत्रुओं के विषय में भी उसने अपने मुँह से कभी कठोर वचन नहीं निकाला। बात यह थी कि उसे बहुत ही कम रोष आता था; अथवा यह कहना चाहिए कि उसे कभी रोष आताही न था।

दशरथ के अधीन जितने माण्डलिक राजा थे उनको उससे वृद्धि और ह्रास-हानि और लाभ—दोनों की प्राप्ति हुई। जिस राजा ने उसकी आशा का उल्लंघन न किया उसे तो अपना मित्र बना कर उसके वैभव को उसने ख़ूब बढ़ा दिया। परन्तु जिसने उसका सामना किया उसके राज-पाट को, वज्रहृदय होकर, उसने नष्ट कर डाला। धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर दशरथ ने, समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी को, केवल एक रथ से, जीत लिया। रथ पर सवार होकर उसने अकेले ही दिग्विजय कर डाला। सेना से सहायता लेने की उसे आवश्यकता ही न हुई। हाथियों और वेगगामी घोड़ों वाली उसकी सेना ने उसका केवल इतना ही काम किया कि उसकी