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रघुवंश।

की किरणों की उज्ज्वलता अधिक हो गई देख शृङ्गार-रस के अधिकारी देवता का हौसला बहुत बढ़ गया। उसकी ध्वजा ख़ूब फहराने लगी। उसके धनुर्बाण में विशेष बल आ गया। चन्द्र-किरणों ने उसके शस्त्रास्त्रों को मानो सान पर चढ़ा कर उनकी धार और भी तेज़ कर दी।

कर्णिकार के जितने पेड़ थे सब खिल उठे। हवन की अग्नि की लपट के समान, उनके फूलों का लाल लाल रंग बहुत ही भला मालूम होने लगा। वन की शोभारूपिणी सुन्दरी ने इन फूलों को यहाँ तक पसन्द किया कि इन्हीं को उसने सोने के गहनों की जगह दे डाली—सुवर्णाभरण के सदृश इन्हीं को उसने अपने शरीर पर धारण कर लिया। रसिक जनों को भी ये फूल बहुत अच्छे लगे। उन्होंने इन फूलों को पत्ते सहित तोड़ कर अपनी अपनी पत्नियों को भेंट किया। केसर और पत्ते लगे हुए ऐसे सुन्दर फूल पा कर वे भी बहुत खुश हुईं और बड़े प्रेम से उन्होंने उनको अपनी अलकों में स्थान दिया—उनसे बाल गूँथ कर उन्होंने अपने को कृतार्थ समझा।

तिलक-नाम के पेड़ों पर भी फूल ही फूल दिखाई देने लगे। उनके फूलों की पाँतियों पर, काजल के बड़े बड़े बूँदों के समान, सुन्दर भौँरे बैठे देख ऐसा मालूम होने लगा जैसे थे वनभूमिरूपिणी नायिका के माथे के तिलक ही हों। कभी ऐसा न समझिए कि उनसे वन की भूमि सुशोभित नहीं हुई। नहीं, उनसे उसकी वैसी ही शोभा हुई जैसी कि माथे पर तिलक लगाने से कामिनियों की होती है।

मधु की सुगन्धि से सुगन्धित होकर, मल्लिका-नाम की नई लतायें, अपने पेड़रूपी पतियों के साथ, आनन्दपूर्वक विलास करने लगीं। इतना ही नहीं, किन्तु अपने नवल-पल्लवरूपी ओठों पर, फूलरूपी मन्द मुसकान की छटा दिखा कर, वे देखने वालों का मन भी मत्त करने लगीं।

सूर्य्य के सारथी अरुण के रङ्ग को भी मात करने वाले वसन्ती वस्त्र, कानों पर रक्खे हुए यव के अङ्कुर और कोयलों की कूक ने शृङ्गार-रस का यहाँ तक उद्दीपन कर दिया कि रसिक लोग उसमें एकदम ही डूब से गये।

हाँ तिलक-वृक्ष की कलियों के गुच्छों का हाल तो रही गया। उनकी शोभा का भी समाचार सुन लीजिए। वसन्त आने पर, उनकी प्रत्येक पँखुडी, पराग के सफ़ेद सफ़ेद कणों से, पुष्ट हो गई और भौंरों के झुण्ड के झुण्ड उन पर बैठने लगे। शुभ्रता और कालिमा का आश्चर्य्यजनक मेल होने लगा। भौंरों को इन पर बैठे देख जान पड़ने लगा जैसे काली काली अलकों में सफ़ेद मोतियों की लड़ियाँ गुँथी हों।