मिथिला से आये हुए ब्राह्मण का दशरथ ने अच्छा आदर-सत्कार किया। उससे वहाँ का सारा वृत्तान्त सुन कर इन्द्र के साथी दशरथजी बहुत खुश हुए। वे बड़े स्वाधीन स्वभाव के थे। उन्होंने कहा, अब देरी का क्या काम? चलही देना चाहिए। बस, तुरन्तही सेना सजाई गई और प्रस्थान कर दिया गया। सेना-समूह के चलने से इतनी धूल उड़ी कि सूर्य्य की किरणें उसके भीतर गुम सी हो गईं। उनका कहीं पताही न रहा। सारा का सारा सूर्य्य छिप गया।
यथासमय दशरथजी मिथिला पहुँच गये। उनकी सेना ने उसके बाग़ों और उद्यानों के पेड़ों को पीड़ित करके उसे चारों तरफ़ से घेर लिया। परन्तु यह घेरा शत्रुभावसूचक न था, किन्तु प्रीतिसूचक था। अतएव प्रियतम के कठोर प्रेम-व्यवहार को जैसे स्त्री सह लेती है वैसे ही मिथिला ने भी सेना-सहित दशरथ के प्रेम-पूर्ण अवरोध को प्रसन्नतापूर्वक सह लिया।
मिथिला में जिस समय जनक और दशरथजी परस्पर मिले उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे इन्द्र और वरुण मिल रहे हों। आचार-व्यवहार और रीति-रवाज में वे दोनों बड़े दक्ष थे। अतएव उन्होंने अपने पुत्रों और पुत्रियों के विवाह की क्रिया, अपने वैभव के अनुसार, बड़े ठाठ से, विधिपूर्वक, निबटाई। रघुकुलकेतु रामचन्द्र ने तो पृथ्वी की पुत्री सीता से विवाह किया और लक्ष्मण ने सीता की छोटी बहन ऊर्म्मिला से। रहे उनके छोटे भाई, तेजस्वी भरत और शत्रुघ्न। सो उन्होंने जनक के भाई कुशध्वज की कन्या माण्डवी और श्रुतिकीर्त्ति के साथ विवाह किया। ये दोनों कन्यायें भी परम रूपवती थीं। कटि तो इनकी बहुत ही कमनीय थी।
चौथे के सहित उन तीनों राजकुमारों का विवाह हो चुका। उस समय, राजा दशरथ के सिद्धियों सहित साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों उपायों की तरह, नव-विवाहिता वधुओं सहित वे चारों राजकुमार बहुत ही भले मालूम हुए। सिद्धियों की प्राप्ति से साम आदि उपाय जैसी शोभा पाते हैं वैसी ही शोभा वधुओं की प्राप्ति से राम आदि चारों कुमारों ने भी पाई। अथवा वरों और वधुओं का वह समागम प्रकृति और प्रत्यय के योग की तरह शोभाशाली हुआ। क्योंकि ऐसी रूपगुणसम्पन्न राजकुमारियाँ पाकर राजकुमार कृतार्थ हो गये और ऐसे सद्वंशजात तथा अपने अनुरूप राजकुमार पाकर राजकुमारियाँ कृतार्थ हो गईं। इस सम्बन्ध से महाराज दशरथ को भी बड़ी ख़ुशी हुई। प्रेम-पूर्वक उन्होंने अपने चारों कुमारों के विवाह की लौकिक रीतियाँ सम्पादित कीं। सारी विधि समाप्त होने पर वे वहाँ से चल दिये। जनकजी भी तीन पड़ाव तक उनके