पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२३२

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रघुवंश।

है, कुछ दूसरी पर। अतएव, ऐसा मालूम होता है जैसे वह, इनके सिर के दोनों तरफ़, कानों का चमर बन गया हो। क्यों, ऐसा ही मालूम होता है न?

"तीर की वायु लेने के लिए निकले हुए इन बड़े बड़े साँपों को तो देख। समुद्र की बड़ी बड़ी लहरों में और इनमें बहुत ही कम भेद है। इनके और लहरों के आकार तथा रङ्ग दोनों में प्रायः समता है। इनके फनों पर जो मणियाँ हैं उनकी चमक, सूर्य्य की किरणों के संयोग से, बहुत बढ़ रही है। इसीसे ये पहचाने भी जाते हैं। यदि यह बात न होती तो इनकी पहचान कठिनता से हो सकती।

"ये लतायें तेरे अधरों की स्पर्धा करने वाले मूँगों की हैं। तरङ्गों के वेग के कारण शङ्खों का समूह उनमें जा गिरता है। वहाँ ऊपर को उठे हुए उनके अङ्कुरों से शङ्खों का मुँह छिद जाता है। अतएव बड़ी कठिनता से किसी तरह वे वहाँ से पीछे लौट सकते हैं।

"देख, वह पर्वतप्राय काला काला मेघ समुद्र के ऊपर लटक रहा है। वह पानी पीना चाहता है, परन्तु अच्छी तरह पीने नहीं पाता। भँवरों में पड़ कर वह इधर उधर मारा मारा फिरता है। उसके इस तरह इधर उधर घूमने से ऐसा जान पड़ता है जैसे मन्दराचल फिर समुद्र को मथ रहा हो। आहा! पानी पीने के लिए झुके हुए इस मेघ ने समुद्र की शोभा को बहुत ही बढ़ा दिया है।

"खारी समुद्र की वह तीर-भूमि लोहे के चक्र के सदृश गोल गोल मालूम होती है। उस पर तमाल और ताड़ का जङ्गल खड़ा है। उसके कारण वह नीली नीली दिखाई देती है। वह हम लोगों से बहुत दूर है। इससे बहुत पतली जान पड़ती है। अपने पतलेपन और नीले रङ्ग के कारण वह ऐसी मालूम होती है जैसे चक्र की धार पर लगे हुए मोरचे की पतली पतली तह।

"हे दीर्घनयनी! समुद्र-तीर-वर्त्तिनी वायु शायद यह समझ रही है कि तेरे बिम्बाधर में विद्यमान रस का मैं बेतरह प्यासा हूँ। अतएव, मुझे इतना धीरज नहीं कि मैं तेरा सिङ्गार हो चुकने तक ठहरा रहूँ—मुझे एक एक पल भारी सा हो रहा है। यही सोच कर मानों वह तेरे मुख का मण्डन, केतकी के फूलों की पराग-रज से, कर रही है। जल्दी के कारण मैं तेरे मुख का मण्डन नहीं होने देता। इससे, मुझ पर कृपा करके, वायु ही तेरे मुख का मण्डन सा कर रही है।

"देख तो, विमान कितने वेग से जा रहा है। हम लोग, पल ही भर में,