पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२५३

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चौदहवाँ सर्ग।

तुम्हारी राज-लक्ष्मी की है। वह तुम्हें प्राप्त होती थी। परन्तु उसका तो तुमने तिरस्कार किया और मेरा आदर। उसे तो तुमने छोड़ दिया और मुझे अपने साथ लेकर वन को चले गये। इसीसे जब मैं तुम्हारे घर में आदरपूर्व्वक रहने लगी तब, मत्सर के कारण, उससे मेरा रहना न सहा गया। क्रुद्ध हुई उसी राज-लक्ष्मी की प्रेरणा का यह परिणाम मालूम होता है। हाय! मेरे वे दिन कहाँ गये जब में राक्षसों से सताये गये सैकड़ों तपस्वियों की पत्नियों को, तुम्हारी बदौलत, शरण देती थी। पर, अब, मुझे ही औरों की शरण जाना पड़ेगा! तुम्हारे जीते, यह मुझसे कैसे हो सकेगा? तुम्हारे वियोग में मेरे ये पापी प्राण बिलकुल ही निकम्मे हैं। बिना तुम्हारे मैं अपने जीवन को व्यर्थ समझती हूँ। वह मेरे किसी काम का नहीं। यदि तुम्हारा तेज मेरी कोख में न विद्यमान होता तो मैं अपने तुच्छ जीवन का एक पल में नाश कर देती। परन्तु तुमसे जो गर्भ मुझ में रह गया है वह मेरी इस इच्छा की सफलता में विन्न डाल रहा है। यदि मैं आत्महत्या कर लूँ तो उसका भी नाश हो जायगा। और, यह मैं नहीं चाहती। गर्भ की रक्षा करना ही मैं अपना धर्म समझती हूँ। इसीसे मुझे मरने से वञ्चित रहना पड़ता है। अच्छा, कुछ हर्ज नहीं। शिशु-जन्म के बाद, सूर्य्य की तरफ़ एकटक देखती हुई, मैं ऐसी तपस्या करूँगी जिससे जन्मान्तर में भी तुम्हीं मेरे पति हो; और, फिर, तुमसे कभी मेरा वियोग न हो। तुम से मेरी एक प्रार्थना है। वह यह कि मनु ने वर्णाश्रमों का पालन करना ही राजा का सबसे बड़ा धर्म्म बतलाया है। यह तुम अवश्य ही जानते होगे। अतएव, यद्यपि, तुमने मुझे अपने घर से निकाल दिया है, तथापि, फिर भी, मैं तुम्हारी दया की पात्र हूँ। इस दशा को प्राप्त होने पर मुझे तुम पत्नी समझ कर नहीं किन्तु एक साधारण तपस्विनी समझ कर ही मुझ पर कृपा करना। प्रजा की देख-भाल रखना और उसकी रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य है ही। अतएव, तुम्हारे राज्य में रहनेवाली मुझ तपस्विनी को भी अपनी प्रजा समझ कर ही मुझ पर कृपादृष्टि रखना। पत्नी की हैसियत से न सही, प्रजा की हैसियत से ही मुझ पर अपना स्वामित्व बना रहने देना। मुझसे बिलकुल ही नाता न तोड़ देना"।

लक्ष्मण ने कहा:—"देवी! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा। माताओं और बड़े भाई से आपका सन्देश मैं यथावत् कह दूँगा।"

यह कह कर लक्ष्मणजी विदा हो गये। जब तक वे आँखों की ओट नहीं हुए तब तक सीताजी उन्हें टकटकी लगाये बराबर देखती रहीं। दृष्टि के बाहर लक्ष्मण के निकल जाने पर सीताजी दुःखातिरेक से व्याकुल हो उठीं और कण्ठ खोल कर, डरी हुई कुररी की तरह, चिल्ला चिल्ला कर