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रघुवंश।

पुरवासियों के आनन्द की सीमा न रही। उन्होंने शत्रुघ्न को बड़ी ही आदरपूर्ण दृष्टि से देखा। यथासमय शत्रुघ्न रामचन्द्रजी की सभा में गये। उस समय रामचन्द्रजी अपने सभासदों से घिरे हुए बैठे थे। सीता का परित्याग करने के कारण, वे, उस समय, एक मात्र पृथ्वी के ही पति थे। लवणासुर के शत्रु शत्रुघ्न ने बड़े भाई को देख कर भक्तिभावपूर्वक प्रणाम किया। कालनेमि के वध से प्रसन्न हुए इन्द्र ने जिस तरह विष्णु भगवान् की प्रशंसा की थी उसी तरह रामचन्द्रजी ने भी शत्रुघ्न की प्रशंसा की। शत्रुघ्न पर वे बहुत प्रसन्न हुए और उनसे प्रेमपूर्वक कुशल-समाचार पूछे। शत्रुघ्न ने उनसे और तो सब बातें कह दीं, पर लव-कुश के जन्म का वृत्तान्त न बताया। बात यह थी कि वाल्मीकि ने उन्हें आज्ञा दे दी थी कि तुम इस विषय में रामचन्द्रजी से कुछ न कहना, किसी समय मैं स्वयं ही यह वृत्तान्त उन्हें सुनाऊँगा। इसीसे, इस विषय में, शत्रुघ्न को चुप रहना पड़ा।

एक दिन की बात सुनिए। किसी ग्रामीण ब्राह्मण का पुत्र, युवा होने के पहले ही, अकस्मात् मर गया। वह ब्राह्मण, उसे गोद में लिये हुए, राजा रामचन्द्र के यहाँ आया। वहाँ, द्वार पर, उसने लड़के को गोद से उतार कर रख दिया और चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा। वह बोलाः—

"अरी पृथ्वी! तेरे दुर्भाग्य का क्या ठिकाना। तू बड़ी ही अभागिनी है। दशरथ के बाद रामचन्द्र के हाथ में आने से तेरी बड़ी ही दुर्दशा हो रही है। तेरे कष्ट दिन पर दिन बढ़ते ही जाते हैं!!!"

रामचन्द्रजी ने उस ब्राह्मण से उसके शोक का कारण पूछा। उसने सारा हाल कह सुनाया। रामचन्द्रजी तो प्रजा के पालक और असहायों के रक्षक थे। ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु का हाल सुन कर वे बहुत लज्जित हुए। उन्होंने मन ही मन कहा:—

"अब तक तो इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के देश पर अकाल मृत्यु के पैर नहीं पड़े थे। मामला क्या है, जो इस ब्राह्मण का बेटा अकाल ही में काल का कौर हो गया"।

उन्होंने उस दुःखदग्ध ब्राह्मण को बहुत कुछ आसा-भरोसा दिया और उससे कहा:—

"आप घबराइए नहीं। ज़रा देर आप यहाँ ठहरिए। आपका दुःख दूर करने का मैं कुछ उपाय करना चाहता हूँ"।

यह कह कर उन्होंने यमराज पर चढ़ाई करने का विचार किया। तत्काल ही उन्होंने कुबेर के पुष्पक विमान को याद किया। याद करते ही