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रघुवंश।

मार्ग में महा-तेजस्वी अगस्त्य मुनि रामचन्द्रजी को मिले। उनको मुनिवर ने—शरत्काल को चन्द्रमा के समान—आपही कृपा करके अपने दर्शन दिये। अगस्त्यमुनि के पास, देवताओं के धारण करने योग्य, एक आभूषण था। उसे उन्होंने समुद्र से पाया था—उस समुद्र से जिसे उन्होंने पी कर फिर पेट से निकाल दिया था। अपने जीवदान के पलटे में ही समुद्र ने मानों उसे मुनिवर को प्रदान किया था। इसी अनमोल आभूषण को अगस्त्य मुनि ने रामचन्द्र को दे दिया। रामचन्द्रजी ने उसे अपने बाहु पर धारण कर लिया—उस बाहु पर जो किसी समय जानकीजी का कण्ठ-पाश बनता था, परन्तु जिसका यह काम बहुत दिनों से बन्द हो गया था। जानकीजी का तो परित्याग ही हो चुका था, बन्द न हो जाय तो क्या हो। उस दिव्य आभूषण को धारण करके रामचन्द्रजी तो पीछे अयोध्या को लौटे, उस ब्राह्मण का मरा हुआ बालक उसके पहले ही जी उठा।

पुत्र के जी उठने पर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने देखा कि रामचन्द्रजी तो यमराज से भी अधिक बली और प्रभुताशाली हैं। यदि वे ऐसे न होते तो यमराज के घर से मेरे पुत्र को किस तरह ला सकते। अतएव, पहले उसने रामचन्द्रजी की जितनी निन्दा की थी उससे कहीं अधिक उनकी स्तुति की। स्तुति से उसने निन्दा का सम्पूर्ण निवारण कर दिया।

इस घटना के उपरान्त रामचन्द्रजी ने अश्वमेध-यज्ञ करने का निश्चय किया और घोड़ा छोड़ा। उस समय उन पर राक्षसों, बन्दरों और मनुष्यों के स्वामियों ने भेंटों की इस तरह वर्षा की जिस तरह कि मेघ अनाज की फ़सल पर पानी की वर्षा करते हैं। रामचन्द्रजी का निमन्त्रण पाकर बड़े बड़े ऋषि और मुनि—पृथ्वी के ही रहनेवाले नहीं, किन्तु नक्षत्रों तक के रहनेवाले—हर दिशा और हर लोक से आकर उनके यहाँ उपस्थित हुए। अयोध्या के बाहर, चारों तरफ़, उन लोगों ने अपने अपने आसन लगा दिये। उस समय फाटकरूपी चार मुखवाली अयोध्या—तत्काल ही सृष्टि की रचना किये हुए ब्रह्माजी की चतुमुखी मूर्त्ति के सदृश—शोभायमान हुई। सीताजी का परित्याग करके रामचन्द्रजी ने उन पर कृपा ही सी की। उनका परित्याग भी प्रशंसा के योग्य ही हुआ। क्योंकि अश्वमेध-यज्ञ की दीक्षा लेने पर, यज्ञशाला में बैठे हुए रामचन्द्रजी ने, सीता ही की सोने की प्रतिमा बना कर, अपने पास बिठाई। उन्होंने दूसरी स्त्री का ग्रहण ही न किया। इससे सीताजी पर रामचन्द्र का सच मुच ही अनन्य प्रेम प्रकट हुआ। धन्य वह स्त्री जिसका स्वामी उसे छोड़ कर भी उसकी प्रतिमा अपने पास रक्खे!

रामचन्द्रजी का यज्ञ बड़े ही ठाठ-बाट से हुआ। शास्त्र में जितनी सामग्री की