पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१९
सोलहवाँ सर्ग।

कुछ दिन और ऐसी दशा रहने से उसके भग्नावशेषों का भी नामोनिशान न रह जायगा; सन्ध्या-समय के बादलों की तरह वे भी विनष्ट हो जायँगे।

"जिन राजमार्गों में दीप्तिमान नूपुरों का मनोहारी शब्द करती हुई स्त्रियाँ चलती थीं वहाँ अब शोर मचाती हुई गीदड़ी फिरा करती हैं। चिल्लाते समय उनके मुँह से आग की *[१] चिनगारियाँ निकलती हैं। उन्हीं के उजेले में वे मुर्दा जानवरों का पड़ा पड़ाया मांस ढूँढ़ा करती हैं।

"वहाँ की बावलियों का कुछ हाल न पूछिए। जल-विहार करते समय उनका जो जल, नवीन नारियों के हाथों का आघात लगने से, मृदङ्ग के समान गम्भीर ध्वनि करता था वही जल, अब, जङ्गली भैंसों के सींगों से ताड़ित होकर, अत्यन्त कर्णकर्कश शब्द करता है।

"बेचारे पालतू मोरों की भी बुरी दशा है। पहले वे बाँस की छतरियों पर आनन्द से बैठते थे। पर उनके टूट कर गिर जाने से उन्हें अब पेड़ों पर ही बैठना पड़ता है। मृदङ्गों की गम्भीर ध्वनि को मेघ-गर्जना समझ कर पहले वे मोद-मत्त होकर नाचा करते थे। पर, अब वहाँ मृदङ्ग कहाँ? इससे उन्होंने नाचना ही बन्द कर दिया है। दावाग्नि की चिनगारियों से उनकी पूछें तक जल गई हैं। कुछ ही बाल उनमें अब बाक़ी हैं। हाय हाय! घरों में बड़े सुख से रहने वाले ये मोर, इस समय, जङ्गली मोरों से भी बुरी दशा को प्राप्त हो रहे हैं।

"आप जानते हैं कि अयोध्या की सड़कों पर, जगह जगह, सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। उन पर, पहले, रम्यरूप रमणियों के महावर लगे हुए, कमल-कोमल पैरों का सञ्चार होता था। पर, आज कल, बड़े बड़े बाघ, मृगों को तत्काल मार कर, उनका लोहू लगे हुए अपने पञ्जे, सीढ़ियों पर रखते हुए, उन्हीं सड़कों पर बेखटके घूमा करते हैं।

"अयोध्या की दीवारों आदि पर जो चित्रकारी है उसकी भी दुर्गति हो रही है। कहीं कहीं दीवारों पर हाथियों के चित्र हैं। उनमें यह भाव दिखाया गया है कि हाथी कमल-कुञ्जों के भीतर खड़े हैं और हथनियाँ उन्हें मृणाल-तन्तु तोड़ तोड़ कर दे रही हैं। परन्तु अब वह पहली अयोध्या तो है नहीं। अब तो वहाँ शेर घूमा करते हैं। अतएव वे जब इन चित्र-लिखित

  1. * किंवदन्ती है कि शृगालियाँ जिस समय ज़ोर से चिल्लाती हैं उस समय उनके मुँह से आग निकलती है।

३३