को छोड़ कर आपको मेरा स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि मैंही आपके वंश के नरेशों की परम्परा-प्राप्त राजधानी हूँ। मेरा निरादर करना आपको योग्य नहीं"।
कुश ने अयोध्या के प्रणयानुरोध को प्रसन्नतापूर्वक मान लिया और बोला—"बहुत अच्छी बात है; मैं ऐसा ही करूँगा"। इस पर स्त्रीरूपिणी अयोध्या का मुख-कमल खिल उठा और वह प्रसन्नता प्रकट करती हुई अन्तर्धान हो गई।
प्रातःकाल होने पर, कुश ने, रात का वह अद्भुत वृत्तान्त, सभा में, ब्राह्मण को सुनाया। वे लोग, सुन कर, बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा की बड़ी बड़ाई की। वे बोले:—
"रघुकुल की राजधानी ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर आपको अपना स्वामी बनाया। इसलिए आप धन्य हैं"।
राजा कुश ने कुशावती को तो वेदवेत्ता ब्राह्मणों के हवाले कर दिया; और, रनिवास-सहित आप, शुभ मुहूर्त्त में, अयोध्या के लिए रवाना हो गया। उसकी सेना भी उसके पीछे पीछे चली। अतएव वह मेघ-मण्डली को पीछे लिये हुए पवन के सदृश शोभायमान हुआ। उस समय उसकी वह सेना, उसकी चलती हुई राजधानी के समान, मालूम हुई। राजधानी में उपवन होते हैं, उसकी सेनारूपिणी राजधानी में भी फहराती हुई हज़ारों ध्वजायें उपवन की बराबरी कर रही थी। राजधानी में घरही घर दिखाई देते हैं। उसकी सेना में भी रथरूपी ऊँचे ऊँचे घरों का जमघट था। राजधानी में विहार करने के लिए शैलों के समान ऊँचे ऊँचे स्थान रहते हैं, उसकी सेना में भी भीमकाय गजराजरूपी शैल-शिखरों की कमी न थी। अतएव, कुश की सेना को जाते देख ऐसा मालूम हाता था कि वह सेना नहीं, किन्तु उसकी राजधानी ही चली जा रही है।
छत्ररूपी निर्म्मल मण्डल धारण किये हुए राजा कुश की आज्ञा से उसका कटक उसकी पहली निवास-भूमि, अर्थात् अयोध्या, की ओर क्रम क्रम से अग्रसर होने लगा। उस समय उसका वह चलायमान कटक—उदित हुए, अतएव अमल मण्डलधारी, चन्द्रमा की प्रेरणा से तट की ओर चलायमान महा-सागर के सदृश—मालूम होने लगा। कुश की विशाल सेना की चाल ने पृथ्वी को पीड़ित सा कर दिया। ज्यों ज्यों राजा कुश अपनी संख्यातीत सेना को साथ लिये हुए आगे बढ़ने लगा त्यों त्यों पृथ्वी की पीड़ा भी बढ़ने सी लगी। वह उस पीड़ा को सहने में असमर्थ सा हो कर, धूल के बहाने, आकाश को चढ़ सी गई। उसने सोचा, आसमान में चली जाने से शायद