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कालिदास की उपमायें।

है। किसकी प्रशंसा की जाय? उपमा की "कोमल-कान्त-पदावली" की अथवा हृदयहारिणी उक्ति की?

कालिदास की कुछ उपमायें बहुत छोटी छोटी है; अनुष्टुप् छन्द के एक ही चरण में वे कही गई हैं। ऐसी उपमाओं में भी वही ख़ूबी है जो लम्बे लम्बे श्लोकों में गुम्फित उपमाओं में है। ये छोटी छोटी उपमायें नीति, सदाचार और लोक-रीति-सम्बन्धिनी सत्यता से भरी हुई हैं। इसी से पण्डितों के कण्ठ का भूषण हो रही हैं। साधारण बात-चीत और लेख आदि में इनका बेहद व्यवहार होता है:—

(१) आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव।
(२) त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदङ्गुलीवोरगक्षता।
(३) विषवृक्षोऽपि संवय स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्।
(४) हंसो हि क्षीरमादत्ते तन्मिश्रा वर्ज्ययत्यपः।
(५) उपप्लवाय लोकानां धूमकेतुरिवोत्थितः।

आदि ऐसी ही उपमायें हैं।

कालिदास का शास्त्र-ज्ञान।

कालिदास के काव्य और नाटक इस बात का साक्ष्य दे रहे हैं कि कालिदास केवल महाकवि ही न थे। कोई शास्त्र ऐसा न था जिसमें उनकी गति न हो। वे असामान्य वैयाकरण थे। अलङ्कार-शास्त्र के वे पारगामी थे। संस्कृत-भाषा पर उनकी निःसीम सत्ता थी। जो बात वे कहना चाहते थे उसे कविता द्वारा व्यक्त करने के लिए सबसे अधिक सुन्दर और भाव-व्यञ्जक शब्दों के समूह के समूह उनकी जिह्वा पर नृत्य सा करने लगते थे। कालिदास की कविता में शायद ही कुछ शब्द ऐसे होंगे जो असुन्दर और अनुपयोगी अथवा भावोद्‌बोधन में असमर्थ समझे जा सके। वेदान्त के वे ज्ञाता थे; आयुर्वेद के वे ज्ञाता थे, सांख्य, न्याय और योग के वे ज्ञाता थे; ज्योतिष के वे ज्ञाता थे; पदार्थ-विज्ञान के वे ज्ञाता थे। लोकाचार, राजनीति, साधारण नीति आदि में भी उनकी असामान्य गति थी। प्रकृति-परिज्ञान के तो वे अद्भुत पण्डित थे। प्रकृति की सारी करामातें—उसके सारे कार्य—उनकी प्रतिभा के मुकुर में प्रतिबिम्बित होकर उन्हें इस तरह देख पड़ते थे जिस तरह कि हथेली पर रक्खा हुआ आमला देख पड़ता है। वे उन्हें हस्तामलक हो रहे थे। उनकी इस शास्त्रज्ञता के प्रमाण उनकी उक्तियों और उपमाओं में जगह जगह पर रत्नवत् चमक रहे हैं।