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रघुवंश।

है। अग्निवर्ण उसकी शोभा को अपने महलों की खिड़कियों से देख देख प्रसन्न होता।

जाड़े आने पर अग्निवर्ण ने अपनी प्रियतमाओं को अगर से सुवासित सुन्दर वस्त्र स्वयं धारण कराये। उन्हें पहनने पर उन स्त्रियों की कमरों में सोने की जो मेखलायें पड़ी थीं वे उन वस्त्रों के भीतर स्पष्ट झलकती हुई दिखाई देने लगीं। उन्हें देख कर अग्निवर्ण के आनन्द की सीमा न रही। वह; इस ऋतु में, अपने महलों के भीतरी भाग के कमरों में, जहाँ पवन की जरा भी पहुँच न थी, रहने लगा। वहाँ पवन का प्रवेश न होने के कारण, जाड़े की रातों ने, दीपकों की निश्चल शिखारूपी दृष्टि से, अग्निवर्ण के भोग-विलास को आदि से अन्त तक देखा—देखा क्या मानों उसकी कामुकता की गवाह सी होगईं।

वसन्त आने पर दक्षिण दिशा से मलयानिल चलने लगा। उसके चलते ही आम के वृक्ष कुसुमित हो गये। उनकी कोमल-पल्लव-युक्त मञ्जरियों को देखते ही अग्निवर्ण की अबलाओं के मान आपही आप छूट गये। उन्हें अग्निवर्ण का विरह दुःसह होगया। अतएव, वे उलटा अग्निवर्ण को ही मना कर उसे प्रसन्न करने लगीं। तब उसने झूले डला दिये। दासियाँ झुलाने लगीं और वह अपनी अबलाओं के साथ झूले का सुख लूटने लगा।

वसन्त बीत जाने पर अग्निवर्ण की प्रियतमाओं ने ग्रीष्म ऋतु के अनुकूल शृंङ्गार किया:—उन्होंने शरीर पर चन्दन का लेप लगा कर, मोती टके हुए सुन्दर आभूषण धारण करके, और, मणिजटित मेखलायें कमर में पहन कर, अग्निवर्ण को जी खोल कर रिझाया। अग्निवर्ग ने भी ग्रीष्म के अनुकूल उपचार आरम्भ कर दिये। आम की मञ्जरी डाल कर बनाया हुआ और लाल पाटल के फूलों से सुगन्धित किया हुआ मद्य उसने ख़ूब ही पान किया। अतएव, वसन्त चले जाने के कारण उसके शरीर में जो क्षीणता आ गई थी वह जाती रही और उसके मनोविकार फिर पूर्ववत् उच्छृङ्खल हो उठे।

इस प्रकार जिस ऋतु की जो विशेषता थी जिसमें जैसे आहार-विहार की आवश्यकता थी—उसी के अनुसार अपने शरीर को अलङ्कृत और मन को संस्कृत करके उसने एक के बाद एक ऋतु व्यतीत कर दी। इन्द्रियों के सुख-सेवन में वह यहाँ तक लीन हो गया कि और सारे काम वह एकदम ही भूल गया।

अग्निवर्ण के इस दशा को पहुँचने पर भी—उसके इतना प्रमत्त होने पर भी—दूसरे राजा लोग, अग्निवर्ण के प्रबल प्रभाव के कारण, उसे जीत