ही लोक-शिक्षारूपी जिस उच्च उद्देश-साधन के इरादे से कवि काव्य-प्रणयन करता है उसकी सिद्धि में भी व्याघात आता है। जो कवि केवल दस पाँच श्लोकों की रचना करके किसी पदार्थ का केवल बाहरी सौन्दर्य्य दिखाता है उसका आसन अधिकांश निरापद रहता है। जो लोग बाहरी सौन्दर्य्य के बीच में वर्णनीय पदार्थ को स्थापित करके, इसी बाहरी सौन्दर्य्य के प्रकाश द्वारा उसे प्रकाशित करते हैं उनका काम भी उतना दुष्कर नहीं। किन्तु जो कवि बाहरी सौन्दर्य्य को दूर रख कर, वर्णनीय वस्तु के केवल भीतरी भाग पर दृष्टि रखता है—वेशभूषा के विषय में उदासीन रह कर भूषित व्यक्ति के हृदय की ही तरफ़ दृष्टि-क्षेप करता है, अर्थात् जो एक सम्पूर्ण विराट मूर्त्ति की सृष्टि करके तद्वारा समाज को शिक्षा देना चाहता है—उसका आसन बड़ा ही समस्या-पूर्ण समझा जाता है। उसे बात बात पर, पद पद पर, अक्षर अक्षर पर, समाज की अवस्था की भावना करनी पड़ती है—लोकहितैषणा से प्रणोदित होना पड़ता है। जो बात समाज के लिए अमङ्गलकर है, जिसकी आलोचना से समाज का प्रकृत हित-साधन नहीं होता, उसका वह परित्याग करता है। इसी से हमारे आर्य्य-साहित्य में लेडी मैकबेथ और ओथेलो का चित्र नहीं पाया जाता। जिस वस्तु का सर्वांश उत्तम है—जो सर्वथा सत् है—उसी की सृष्टि होनी चाहिए।
महाकवि कालिदास के श्रेष्ठ काव्य, अथवा संस्कृत भाषा के सवश्रेष्ठ महाकाव्य, रघुवंश के प्रत्येक अक्षर में यह सत्य विद्यमान है। लोक-शिक्षोपयोगी बातों से रघुवंश आद्यन्त परिपूर्ण है। देवता और ब्राह्मण में भक्ति, गुरु के वाक्य में अटल विश्वास, मातृरूपिणी पयस्विनी धेनु की परिचर्य्या, भिक्षार्थो अतिथि की अभिलाषपूर्त्ति के लिए धराधीश राजा की व्याकुलता, लोकरञ्जन और राजसिंहासन निष्कलङ्क रखने के लिए राजा के द्वारा अपनी प्राणोपमा पत्नी का निर्वासनरूपी आत्मत्याग आदि अनेक लोकहितकर और समाजशिक्षोपयोगी विषयों से रघुवंश अलङ्कृत है।
श्रीयुत राजेन्द्रनाथ जी की यह सम्मति बहुत ही ठीक है। रघुवंश सचमुच ही सर्वश्रेष्ठ काव्य है। इसी से संस्कृत के और सैकड़ों काव्यों के रहते उसका इतना आदर है और इसी से हमने उसका भावार्थ हिन्दी में लिखने की आवश्यकता समझी।
रघुवंश के नाम ही से यह सूचित होता है कि उसमें रघुवंशी राजाओं की कथा है। इस कथा को काव्य का रूप देने में महाकवि ने सब कहीं