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रघुवंश के हिन्दी-अनुवाद।


वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त (वागर्थप्रतिपत्तये) मैं वन्दना करता हूं (वन्दे) वाणी और अर्थ की नाईं (वागर्थाविव) मिले हुए (संपृक्तौ) जगत् के (जगतः) माता-पिता (पितरौ) शिव पार्वती को (पार्वतीपरमेश्वरौ)

इससे पाठकों को मालूम हो जायगा कि राजा साहब ने जो यह अर्थ किया किः—

"वाणी और अर्थ की सिद्ध के निमित्त मैं वन्दना करता हूँ वाणी और अर्थ की नाईं मिले हुए जगत् के माता पिता शिव पार्वती को"

वह संस्कृत के प्रत्येक पद का शब्दार्थ हुआ और संस्कृत के जिस पद में जो विभक्ति थी वही हिन्दी में भी रही। इसी तरह राजा साहब ने सारे रघुवंश का अनुवाद किया है। यह अनुवाद विद्यार्थियों के सचमुच ही बड़े काम का है और इसे प्रकाशित करके राजा साहब ने विद्यार्थियों का बड़ा उपकार किया।

राजा साहब के अनुवाद के बाद, दूसरा गद्यात्मक अनुवाद पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र का है। इस अनुवाद में अनुवादक महोदय ने ऊपर तो मूल श्लोक दिया है, उसके नीचे संस्कृत में अन्वय, उसके नीचे संस्कृत ही में वाच्यपरिवर्त्तन और उसके भी नीचे संस्कृत ही में श्लोक का भावार्थ। अन्त में आपने हिन्दी अनुवाद भी दिया है। पर यह हिन्दी अनुवाद राजा लक्ष्मणसिंहजी के अनुवाद के हा ढंग का है। ऊपर राजा साहब के किये हुए रघुवंश के पहले श्लोक का अनुवाद दिया जा चुका है। अब उसी का अनुवाद, मिश्र जी का किया हुआ, देखिए:—

"मैं वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त वाणी और अर्थ की समान मिले हुए जगत् के माता पिता पार्वती शिव को प्रणाम करता हूं।"

राजा साहब और मिश्र जी के अनुवाद में भेद इतना ही है कि मिश्रजी के अनुवाद में 'नाई' की जगह 'समान' शब्द है और 'वन्दना' की जगह 'प्रणाम' है। इसके सिवा शब्दों का क्रम भी कुछ बदला हुआ है। अतएव उनकी भाषा राजा साहब की भाषा से कुछ अच्छी होगई है। बस, और कोई भेद नहीं। मिश्रजी ने भी अन्वय के अनुसार ही अनुवाद किया है। और, आपका भी अनुवाद "भाषा के ज्ञाता तथा परीक्षा देनेवाले विद्यार्थियों के निमित्त" है। विद्यार्थियों के सुभीते के लिए आपने पहले सात सर्गों के आवश्यक पदों की व्याकरण-प्रक्रिया भी लिख दी है।