और, पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने लिखा है:—
वह संग्राम में सुघड़ दक्षिण हाथ को तरकस के मुख पर रखता हुआ दीखा, और इस युद्ध करनेवाले की एक बार खेंची हुई प्रत्यञ्चा ने शत्रु के संहार करने हारे मानों शर उत्पन्न किये।
इसी श्लोक का भावार्थ इस अनुवाद में इस तरह लिखा गया है:—
बाणविद्या में अज इतना निपुण था कि वह अपना दाहना अथवा बाँयाँ हाथ बाण निकालने के लिए कब अपने तूणीर में डालता और बाण निकालता था, यही किसी को मालूम न होता था। उस अलौकिक योद्धा के हस्त-लाघव का यह हाल था कि उसके दाहने और बाँयें, दोनों हाथ, एक से उठते थे। धनुष की डोरी जहाँ उसने एक दफ़े कान तक तानी तहाँ यही मालूम होता था कि शत्रुओं का संहार करनेवाले असंख्य बाण उस डोरी से ही निकलते से—उससे ही उत्पन्न होते से-चले जाते हैं।
मतलब यह कि इस अनुवाद में शब्दार्थ पर कम ध्यान दिया गया है, भावार्थ पर अधिक। स्पष्ट शब्दों में कालिदास का आशय समझाने की चेष्टा की गई है। शब्दों का अर्थ लिख देने हीं से सन्तोष नहीं किया गया। महाकवियों के प्रयुक्त किसी किसी शब्द में इतना अर्थ भरा रहता है कि उस शब्दार्थ का वाचक हिन्दी शब्द लिख देने ही से उसका ठीक ठीक बोध नहीं होता। उसे स्पष्टतापूर्वक प्रकट करने के लिए कभी कभी एक नहीं, अनेक शब्द लिखने पड़ते हैं। अनुवादक को इस कठिनता का पद पद पर सामना करना पड़ा है। यद्यपि उसे हल करने की उसने यथाशक्ति चेष्टा की है, तथापि वह नहीं कह सकता कि कहाँ तक उसे सफलता हुई है। उसकी सफलता अथवा विफलता का निर्णय इस अनुवाद के विज्ञ पाठक ही कर सकेंगे।
दौलतपुर, डाकखाना भोजपुर, रायबरेली— | महावीरप्रसाद द्विवेदी। |
६ अगस्त, १९१२ |