पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/५३

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पहला सर्ग।

क्षमा करना उसे अधिक पसन्द था—परकृत अपराधों को वह चुपचाप सहन कर लेता था। यद्यपि वह बड़ा दानी था, तथापि दान देकर कभी उस बात को अपने मुँह से न निकालता था। ये ज्ञान, मौन आदि गुण यद्यपि परस्पर विरोधी हैं तथापि उस राजा में ये सारे के सारे सगे भाई की तरह वास करते थे।

अपनी प्रजा को वह सन्मार्ग में लगाता था, भय से उनकी सदा रक्षा करता था, अन्न-वस्त्र आदि देकर उनका पालन पोषण करता था। अतएव प्रजा का वही सच्चा पिता था। प्रजाजनों के पिता केवल जन्म देने वाले थे। जन्म देने ही के कारण वे पिता कहे जा सकते थे और किसी कारण से नहीं।

सब लोगों को शान्तिपूर्वक रखने ही के लिए वह अपराधियों को दण्ड देता था, किसी लोभ के वश होकर नहीं। एक मात्र सन्तान के लिए ही वह विवाह की योजना करता था, विषयोपभाग की वासना से नहीं। अतएव उस धर्मज्ञ राजा के अर्थ और काम—ये दोनों पुरुषार्थ भी धर्म ही का अनुसरण करने वाले थे। धर्म ही को लक्ष्य मान कर वह इन दोनों की योजना करता था।

राजा दिलीप ने यज्ञ ही के निमित्त पृथ्वी को, और इन्द्र-देवता ने धान्य ही की उत्पत्ति के निमित्त आकाश को, दुहा। इस प्रकार उन दोनों ने अपनी अपनी सम्पत्ति का बदला करके पृथ्वी पर स्वर्गलोक, दोनों, का पालन किया। अर्थात् यज्ञ करने में जो ख़र्च पड़ता है उसकी प्राप्ति के लिए ही राजा ने कर लेकर पृथ्वी को दुहा—उसे ख़ाली कर दिया। उधर उसके किये हुए यज्ञों से प्रसन्न होकर इन्द्र ने पानी बरसा कर पृथ्वी को धान्यादि से फिर परिपूर्ण कर दिया।

धर्मपूर्वक प्रजापालन करने से उसे जो यश प्राप्त हुआ उसका अनुकरण और किसी से न करते बना—उसके सदृश प्रजापालक राजा और कोई न हो सका। उस समय उसके राज्य में कभी, एक बार भी, चोरी नहीं हुई। चौर-कर्म्म का सर्वथा अभाव होगया। 'चोरी' शब्द केवल कोश में हो रह गया।

ओषधि कड़वी होने पर भी रोगी जिस तरह उसका आदर करता है उसी तरह उस राजा ने शत्रुता करने वाले भी सज्जनों का आदर किया। और, कुमार्ग से जाने वाले मित्रों का भी, साँप से काटे गये अँगूठे के समान, तत्काल ही परित्याग किया। भलों ही का वह साथी बना, बुरों को कभी उसने अपने पास तक नहीं फटकने दिया।