पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/५८

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रघुवंश।

आप ने मेरे शत्रुओं का नाश कर दिया है। इस दशा में आँख से देखे गये निशाने पर लगने वाले मेरे ये बाण व्यर्थ से हो रहे हैं। उनका सारा काम तो आपकी कृपाही से हो जाता है। मेरी मानुषी आपत्तियों का तो नाश आपने इस प्रकार कर दिया है। रहीं दैवी आपत्तियाँ, सो उनका भी यही हाल है। हे गुरुवर! यज्ञ करते समय होता, अर्थात् हवनकर्त्ता, बन कर अग्नि में घृत आदि हवन-सामग्री की जो आप विधिवत् आहुतियाँ देते हैं वही वृष्टि-रूप हो कर सूखते हुए सब प्रकार के धान्यों का पोषण करती हैं। मेरे जितने प्रजा-जन हैं उनमें से किसी को भी अकाल मृत्यु नहीं आती। वे सब अपनी पूरी आयु तक जीवित रहते हैं। रोग आदि पीड़ा कभी किसी को नहीं सताती। अति-वृष्टि और अनावृष्टि से भी किसी को भय नहीं। इन सब का कारण केवल आपकी तपस्या और आप का वेदाध्ययन-सम्बन्धी तेज है। जब प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव के पुत्र आपही मेरे कुल-गुरु हैं और जब आप स्वयं ही मेरे कल्याण के लिए निरन्तर चेष्टा करते रहते हैं तब फिर क्यों न सारी आपदायें मुझ से दूर रहें और क्यों न मेरी सम्पदाओं की सदा वृद्धि होती रहे?

"किन्तु, आप की बधू इस सुदक्षिणा के अब तक कोई आत्मकुलोचित पुत्र नहीं हुआ। अतएव द्वीप-द्वीपान्तरों के सहित यह रत्न-गर्भा पृथ्वी मुझे अच्छी नहीं लगती—वह मेरे लिए सुखदायक नहीं। क्योंकि, जितने रत्न हैं सब में पुत्र-रत्न ही श्रेष्ठ है।

"निर्धन और सञ्चयशील मनुष्य वर्तमान काल में किसी प्रकार अपना निर्वाह कर के भविष्यत् के लिए धन-संग्रह करने की सदा चेष्टा करते हैं। मेरे पितरों का हाल भी, इस समय, ऐसेही मनुष्यों के सदृश हो रहा है। वे देखते हैं कि मेरे अनन्तर उनके लिए पिण्ड-दान देने वाला, मेरे कुल में, कोई नहीं। इस कारण मेरे किये हुए श्राद्धों में वे यथेष्ट भोजन नहीं करते। श्राद्ध के समय उच्चारण किये गये स्वधा-शब्द के संग्रह करनेही में वे अधिक लगे रहते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं कि श्राद्ध में जो अन्न मैं उन्हें देता हूँ वह यदि सारा का सारा ही वे खा डालेंगे तो आगे उन्हें कहाँ से अन्न मिलेगा। अतएव, इसी में से थोड़ा थोड़ा संग्रह कर के आगे के लिए रख छोड़ना चाहिए। इसी तरह, तर्पण करते समय जब मैं पितरों को जलाञ्जलि देता हूँ तब उन्हें यह ख़याल होता है कि हाय! दिलीप की मृत्यु के अनन्तर यह जल हम लोगों के लिए सर्वथा दुर्लभ हो जायगा। यह सोचते समय उन्हें बड़ा दुःख होता है और वे दीर्घ तथा उष्णनिःश्वास छोड़ने लगते हैं। इस कारण मेरा दिया हुआ वह जल भी उष्ण हो जाता है और उन बेचारों को वही पीना पड़ता है।