पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/६९

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दूसरा सर्ग।


बीत गये। बाईसवें दिन नन्दिनी के मन में राजा के हृदय का भाव जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने अपने उस अनुचर की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उसने कहा—"देखूँ, यह मेरी सेवा सच्चे दिल से करता है या नहीं"। यह सोच कर उसने गङ्गाद्वार पर हिमालय की एक ऐसी गुफ़ा में प्रवेश किया जिसमें बड़ी बड़ी घास उग रही थी।

दिलीप यह समझता था कि इस गाय पर सिंह आदि हिंसक जीवों का प्रत्यक्ष आक्रमण तो दूर रहा, इस तरह के विचार को मन में लाने का साहस तक उन्हें न होगा। अतएव वह निश्चिन्ततापूर्वक पर्वत की शोभा देखने में लगा था। उसका सारा ध्यान हिमालय के प्राकृतिक दृश्य देखने में था। इतने में एक सिंह नन्दिनी पर सहसा टूट पड़ा और उसे उसने पकड़ लिया। परन्तु राजा का ध्यान अन्यत्र होने के कारण उसने इस घटना को न देखा। सिंह के द्वारा पकड़ी जाने पर नन्दिनी बड़े ज़ोर से चिल्ला उठी। गुफ़ा के भीतर चिल्लाने से उसके आर्त्तनाद की बहुत बड़ी प्रतिध्वनि हुई। उसने पर्वत की शोभा देखने में लगी हुई उस दीनवत्सल दिलीप की दृष्टि को, रस्सी से खींची गई वस्तु की तरह, अपनी ओर खींच लिया। गाय की गहरी आर्तवाणी सुनने पर उस धनुर्धारी राजा की दृष्टि वहाँ से हटी। उसने देखा कि गेरू के पहाड़ की शिखर-भूमि के ऊपर फूले हुए लोध्रनामक वृक्ष की तरह उस लाल रङ्ग की गाय के ऊपर एक शेर उसे पकड़े हुए बैठा है। अपने बाहुबल से शत्रुओं का क्षय करनेवाले और शरणागतों की रक्षा में ज़रा भी देर न लगानेवाले राजा से सिंह का किया हुआ यह अपमान न सहा गया। वह क्रोध से जल उठा। अतएव वध किये जाने के पात्र उस सिंह को जान से मार डालने के लिए, सिंह ही के समान चालवाले उस राजा ने, बाण निकालने के इरादे से, अपना दाहना हाथ तूणीर में डाला। ऐसा करने से सिंह पर प्रहार करने की इच्छा रखनेवाले दिलीप के हाथ के नखों की प्रभा, कङ्कनामक पक्षी के पर लगे हुए बाण की पूँछों पर, पड़ी। इससे वे सब पूँछें बड़ी ही सुन्दर मालूम होने लगीं। उस समय बड़े आश्चर्य्य की बात यह हुई कि राजा की उँगलियाँ बाण की पूँछ ही में चिपक गई। चित्र में लिखे हुए धनुर्धारी पुरुष की बाण-विमोचन क्रिया के समान उसका वह उद्योग निष्फल हो गया। हाथ के इस तरह रुक जाने से राजा के कोप की सीमा न रही। क्योंकि महा पराक्रमी होने पर भी सामने ही बैठे हुए अपराधी सिंह को दण्ड देने में वह असमर्थ हो गया। अतएव, मन्त्रों और ओषधियों से कीले हुए विष-धर भुजङ्ग की तरह वह तेजस्वी राजा अपनी ही कोपाग्नि से भीतर ही भीतर जलने लगा।