सम्भाषण ही होता है। बातचीत होने ही से सम्बन्ध स्थिर होता है। जब तक पहले बातचीत नहीं हो लेती तब तक किसी का किसी के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं हो सकता। वह इस वन में हम दोनों के मिलने और आपस में बातचीत करने से हो गया। हम दोनों सम्बन्ध-सूत्र से बँध चुके। अतएव, हे शिवजी के सेवक! मुझ सम्बन्धी की प्रणयपूर्ण प्रार्थना का अनादर करना अब तुझे उचित नहीं"।
दिलीप की दलीलें सुन कर सिंह ने अपना आग्रह छोड़ दिया। उसने कहा:—"बहुत अच्छा, तेरा कहना मुझे मान्य है। यह वाक्य उसके मुँह से निकलते ही, निषङ्ग के भीतर बाणों की पूँछ पर चिपका हुआ राजा का हाथ छूट गया। हाथ को गति प्राप्त होते ही राजा ने अपने शस्त्रास्त्र खोल कर ज़मीन पर डाल दिये और मांस के टुकड़े के समान अपना शरीर सिंह को समर्पण करने के लिए वह बैठ गया। इसके उपरान्त, अपने ऊपर होने वाले सिंह के भयङ्कर उड़ान की राह, सिर नीचा किये हुए, वह देख ही रहा था कि उस पर विद्याधरों ने फूल बरसाये। सिंह का आक्रमण होने के बदले उस प्रजापालक राजा पर आकाश से कोमल कुसुमों की वृष्टि हुई!
उस समय 'बेटा! उठ'—ऐसे अमृत मिले हुए वचन उसके कान में पड़े। उन्हें सुन कर वह उठ बैठा। पर सिंह उसे वहाँ न दिखाई पड़ा। टपकते दूधवाली एक मात्र नन्दिनी ही को उसने, अपनी माता के समान, सामने खड़ी देखा। इस पर दिलीप को बड़ा आश्चर्य्य हुआ। उसे बेतरह विस्मित देख नन्दिनी ने कहाः—
"हे राजा! तेरी साधुता की प्रशंसा नहीं हो सकती। यह जानने के लिए कि मुझ पर तेरी कितनी भक्ति है, मैंने ही यह सारी माया रची थी। वह सच्चा सिंह न था; मेरा निर्माण किया हुआ मायामय था। महर्षि वशिष्ठ की तपस्या के सामर्थ्य से प्रत्यक्ष काल भी मेरी और वक्र दृष्टि से नहीं देख सकता। बेचारे अन्य हिंसक जीव मुझे क्या मारेंगे? बेटा! तू बड़ा गुरु-भक्त है। मुझ पर भी तेरी बड़ी दया है। इस कारण मैं तुझ पर परम प्रसन्न हूँ। जो वर तू चाहे मुझ से माँग ले। यह न समझ कि मैं केवल दूध देनेवाली एक साधारण गाय हूँ; वर प्रदान करने की मुझ में शक्ति नहीं। मैं वैसी नहीं। मैं सब कुछ दे सकती हूँ। सारे मनोरथ पूर्ण करने की मैं शक्ति रखती हूँ। अतएव, जो तू माँगेगा वही मुझसे पावेगा"।