पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
रघुवंश।

गुप्तरूपधारी इन्द्र ने उसे हर लिया। यह देख कर कुमार रघु को बड़ा आश्चर्य्य हुआ। उसकी सारी सेना जहाँ की तहाँ चित्र लिखी सी खड़ी रह गई। विस्मय की अधिकता के कारण उसका कर्त्तव्य-ज्ञान जाता रहा। किसी की समझ में यह बात ही न आई कि इस समय क्या करना चाहिए। इतने में, राजा दिलीप को वरदान देने के कारण सर्वत्र विदित प्रभाववाली, महर्षि वशिष्ठ की नन्दिनी नामक गाय, अपनी इच्छा से फिरती फिरती वहाँ आई हुई सब को देख पड़ी। साधुजनों के सम्मानपात्र दिलीपपुत्र रघु ने उसे सादर प्रणाम किया और उसके शरीर से निकले हुए पवित्र जल, अर्थात् मूत्र, को अपनी आँखों में लगाया। उस जल से धोई जाने पर रघु की आँखों में उन पदार्थों को भी देखने की शक्ति उत्पन्न हो गई जो चर्म्मचक्षुओं से नहीं देखे जा सकते। नन्दिनी की बदौलत दिलीपनन्दन रघु को दिव्य दृष्टि प्राप्त होते ही उसने देखा कि पर्वतों के पंख काट गिरानेवाला इन्द्र, यज्ञ के घोड़े को रथ की रस्सी से बाँधे हुए, उसे पूर्व दिशा की ओर भगाये लिये जा रहा है; घोड़ा बेतरह चपलता दिखा रहा है, और इन्द्र का सारथि उसकी चपलता को रोकने का बार बार प्रयत्न कर रहा है। रघु ने देखा कि इस रथारूढ़ पुरुष के सो आँखें हैं और उन आँखों की पलकें निश्चल हैं, न वे बन्द होती हैं, न खुलती हैं। उसने यह भी देखा कि इसके रथ के घोड़े हरे हैं। इन चिह्नों से उसने पहचान लिया कि इन्द्र के सिवा यह और कोई नहीं। इस पर उसने बड़ा ही गम्भीर नाद करके इन्द्र को ललकारा। उसके उच्च स्वर से सारा आकाश गूँज उठा और यह मालूम होने लगा कि इन्द्र को लौटाने के लिए वह उसे पीछे से खींच सा रहा है। उसने कहा:—

"सुरेन्द्र! शाबाश! बड़े बड़े महात्मा और विद्वान् पुकार पुकार कर कह रहे हैं कि यज्ञों का हविर्भाग पानेवालों में तूही प्रधान है—सब से अधिक हव्य-अंश सदा तू ही पाता है। उधर तो वे यह घोषणा दे रहे हैं, इधर यज्ञ की दीक्षा लेने में सतत प्रयत्न करने वाले मेरे पिता के यज्ञ का विध्वंस करने की तू ही चेष्टा कर रहा है। यह क्यों? तू ऐसा विपरीत आचरण करने के लिए प्रवृत्त कैसे हुआ? तू तो स्वर्ग, मृत्यु और पाताल, इन तीनों लोकों का स्वामी है। दृष्टि भी तेरी दिव्य है। यज्ञ के विरोधी दैत्यों को दण्ड देकर उन्हें सीधा करना तेरा काम है, न कि याज्ञिकों का घोड़ा लेकर भागना। धर्म्माचरण करनेवालों के धर्म्मानुष्ठान में यदि तू ही, इस तरह, विघ्न डालेगा तो बस हो चुका! फिर बेचारा धर्म नष्ट हुए बिना कैसे रहेगा? अतएव, देवेन्द्र! अश्वमेध-यज्ञ के प्रधान अङ्ग इस घोड़े को तू छोड़ दे। वैदिक धर्म का उपदेश करनेवाले—वेद-विहित मार्ग को दिखाने