पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/१०१

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परिच्छेद)
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रङ्गमहल में हलाहल।


याकूब--"सुलताना! आपका हुक्म यह गुलाम बसरोचश्म बजा ला सकता है। मगर इस फ़िद्वी का तनहाई के आलम में अपनी मलका को ख़ाबग़ाह में उसके बराबर बैठना सरासर बेजा है; इसवास्ते आप जो हुक्म दें, गुलाम उसे बजा लाए और यहाँसे फ़ौरन चला जाय!"

यह सुन कर रज़ीया उठ खड़ी हुई और उसने हंसते हुए, आगे बढ़कर याक ब का हाथ थाम लिया और उसे लाकर अपने मसनद के बराबर बैठाया और उसीके सामने खुद भी बैठ कर यों कहां,-

" प्यारे ! याकूब ! तुम भी, भई ! अजीब बसर हो! वल्लाह ! आज से तुम मुझे अपनी बहन समझो और मैं भी तुम्हारे साथ उसी तरह पेश आऊंगी, जिस तरह कि बहन अपने भाई के साथ बरताव रखती है । मगर ऐसा क्यों ? यह तुम पूछ सकते हो ! खैर तो सुनो-उस रोज़ दंगल में तुमने, मियां याक ब ! जैसी लासानी बहादुरी और सिपहगरी दिखलाई थी, उसका एवज़ सिवाय इसके और मैं तुम्हें क्या दे सकती हूँ कि मैं इसी लहज़ो तुमको गुलामी से रिहा करूं और एक बड़ी जागीर तुम्हें बतौर इनाम देकर तुमको अपने दरबारी उमराओं में शुमार करके अपना फ़र्ज़ अदा करूं।"

यह एक ऐसी बात थी और इसके कहने का एक ऐसा अनोखा ढंग था कि जिसे सुन कर याकूब का दिल फड़क उठा और उसने मानों स्वर्ग को संपत हाथों हाथ पाई । क्योंकि जिस आशा का सपना उसने कभी देखा ही न था और न जिस आशा के सफल होने की उसने कभी मन ही मन कल्पना ही की थी,उसे अना- यास यों सफल होते देख वह मारे खुशी के क्यों न फड़क उठता !!! हम तो इस बात पर जोर देकर कह सकते हैं कि याक ब जैसी हालत में जो कोई मुबतिला हों, वे भी उस समय मारे खुशी के अवश्य उछल उछल पड़ेंगे, जब कि उन्हें भी याक ब ही की. भांति कोई आशातीत वस्तु के मिलने की संभावना होगी।

निदान, बेगम की उन बातों को; जो निहायत ही हमदर्दी के साथ कही गई थीं, सुन कर याकू ब खड़ा होगया और तीनसार ज़मीन चूम कर उसने सलाम किया और कहा,-