पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/१२१

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परिच्छेद
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रङ्गमहल में हलाहल।


छीन कर अपने कमरबंद में खोंस ली थी। पलक के गिरने में तो देर भी लगती है, पर रज़ीया ने इतनी फुर्ती की कि उस नकाबपोश से कुछ भी करते धरते न बना और रज़ीया ने एकही झपट्टे में नकाबपोश के कमरबंद में से अपनी कटार बैंच ली और उसे भरः जोर पकड़, तन कर बोली,--

"ले, होशियार हो, कंम्बर दोज़खीकुत्ते ! मैं अभी तुझे होज़ख-रसीदः किए देती हूं।"

यों कह कर भूखी या चुटीली बाघिन की तरह वह नकाबपोश पर झपटी और चाहती थी कटार उसके कलेजे में भोंक दे; कि उस अजीव नकाबपोश ने बड़ी आसानी के साथ उस (रज़ीया) के हाथ से फिर कटार छीन ली और उसे अपनी मुट्ठी में दवा कर कहा,--

"रज़ीया ! सचमुच मौत ने तेरा दामन मजबूती के साथ पकड़ा चाहता था कि तेरे खून से अपना हाथ न रंगं, मगर नहीं, अब तेरा मरना ही बिहतर है; क्योंकि अब मैं इस कटार को बगैर तेरे कलेजे के पार पहुंचाए, नहीं रह सकता।"

यों कह कर उस नकाबपोश ने रज़ीया को उसी छपरखट पर पटक दिया और उस कटार को तान कर वह चाहता था कि बेगम के कलेजे के पार करदे कि इतने ही में उस कमरे का एक दर्वाज़ा बड़े जोर से खुल गया और हाथ में नंगी तल्वार लिये हुए एक शख्स उस कमरे के अन्दर दाख़िल हुआ।

*पहिला भाग समाप्त।*