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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/४१

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परिच्छेद)
३३
रङ्गमहल में हलाहल।

जो इन तशबीहों से भी दाग़ उन दोनों में आता हो।
उसे कन्दीले काबः, इसको काबः की रदा समझे॥
हकीर इन सारी तशबीहों को रद करके य कहते हैं।
सवैदा उसको समझे, और इसे नूरे खुदा समझे।(१)

इस ग़ज़ल को उस नाज़नी ने इस खूबी के साथ गाया कि सारी महफ़िल फड़क उठी और बेगम ने उसे इनाम देकर सभोंको रुख़सत किया। फिर सौसन की ओर देखकर कहा,-

"क्यों बी, सौसन ! आज तेरा चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों नज़र आता है?"

सच मुच सौसन के चेहरे पर उस समय उदासी की छाया पड़ी हुई थी, और रह रह कर न जाने क्यों, भीतर ही भीतर वह तलमला उठती थी, किन्तु बेगम की बात से वह चिहुंक उठी और अपने भाव को मनही मन दबाकर तुरंत उसने जवाब दिया,-

"जी, नहीं, हुजूर! इस ग़ज़ल की बंदिश ने मेरे दिल को उलझा लिया था।"

रज़ीया,-"तो क्या आज तू कुछ न गावेगी?"

"क्यों नहीं, हुजूर ! ” यों कहकर सौसन ने बीन उठाली और गुलशन बायां बजाने लगी । पहिले तो उसने हम्मीर रागनी को बहुतही अच्छी तरह से बीन के द्वारा अदा किया, फिर वह ग़ज़ल गाने लगी,-

जब न था कुछ इश्क, हाले यार क्या मालूम था।
मज़हरे तौहीदे हक़ रुख़सार क्या मालूम था॥
हम समझते थे कि होंगे वस्ल में तुमपर निसार।
जान लेगी हसरते दीदार क्या मालूम था॥
पहले आसाँ जानते थे आपकी उल्फ़त को हम।
ज़िन्दगी हो जायगी दुश्वार क्या मालूम था॥
नकद दिल को लेके आ निकले थे एक उम्मीद पर।
लाओबाली है तेरी सरकार, क्या मालूम था॥
क्या ख़बर थी मुझको अपने बस में करलेंगे हुजूर।
और भी हो जाएंगे बेज़ार क्या मालूम था।।
हम अभी से कह रहे हैं, इश्क में जाती है जान।


(१) हक़ीर।

(५) न०