सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
परिच्छेद)
४३
रङ्गमहल में हलाहला।

सातवां परिच्छेद.

दर्बार-ई-सुल्ताना।

"करेंगे हम्ही खुश रियोया को अपनी ।
हम्हीं पर उम्मीदे हैं मौक़ूफ़ उसकी ।
हम्हीं शमा इसलाम रौशन करेंगे।
बड़ों का हम्ही नाम रौशन करेंगे।"

(बेगम)

हमलोगो ने अंगरेज़ी कचहरियां, हाईकोर्ट और लाट- साहब की कौन्सिल की बहार देखी है और अंगरेजी पार्लिमेन्ट महासभा का हाल पुस्तकों तथा समाचार पत्रों में पढ़ा है; किन्तु इन सभों से बादशाही दर्बार या कचहरी की छटा कुछ निराली ही थी। एक जगह पर, डाकृर म्यानसी, जिसने शाहजहां और औरंगजेब का दर्बार देखा था, अपने 'भ्रमणवृत्तान्त' यों में लिखता है किः-

"योरोपीय राजनैतिक दार या कचहरियों की अपेक्षा हिन्दु- स्तान के बादशाही दर्बार तो बड़े शान शौकत के होते हैं और उन में जो मुकदमात पेश होते हैं, वे तुरंत फैसल हो आते हैं; पर कचहरियां जहांपर काजी साहब का बिल्कुल अख़ितयार होता है, इन्साफ़ ता क्या, बाज़ बाज़ मुकद्दमें के कभी फ़ैसल होने की बारी ही नहीं जाती।"

यद्यपि म्यानिसी के मत से हम सम्पूर्ण सहमत नहीं हैं और हम ऐसा समझते हैं कि शाही दर्बार या काज़ी की सभी कचहरियों में ही अन्धेर या घूस का बाज़ार गर्म न था, कल्कि कहीं कहीं बहुत सी छान बीन के बाद सच्चा न्याय भी किया जाता था; किन्तु हां, यह सच है कि कभी कभी कोई कोई मामले क़ाज़ी के यहां पड़े पड़े योंहीं गल पच जाते थे और उनपर कुछ भी विचार या न्याव नहीं होता था; परन्तु यह दोष किसी किसी शाही दर्बार में