पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२०६

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सबद न पावत से भाव उमगावत जो ताकि-ताकि अानन ठगे से ठहि जात हैं। रंचक हमारी सुन। रंचक हमारी सुना रंचक हमारी सुना कहि रहि जात हैं ॥१९॥ दाबि-दाबि छाती पाती-लिखन लगायो सबै ब्याँत लिखिबै को पैन कोऊ करि जात है । कहै रतनाकर फुरति नाहिँ बात कछू हाथ धरचौ ही-तल यहरि थरि जात है। ऊधौ के निहोरै फेरि नै धीर जोरै पर ऐसौ अंग ताप को प्रताप भरि जात है। सूखि जाति स्याही लेखिनी के नैं डंक लागैं अंक लागै कागद बररि बोर जात है ॥१०॥ कोऊ चले काँपि संग कोऊ उर चाँपि चले कोऊ चले कछुक अलापि हलवल से । कहै रतनाकर सुदेस तजि कोऊ चले कोऊ चले कहत सँदेस अबिरल से ॥ . आँस चले काहू के सु काहू के उसाँस चले काहू के हियै पै चंदहास चले हल से । ऊधव के चलत चलाचल चली यौँ चल अचल चले श्रौं अचले हू भए चल से ॥१०॥