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पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३४

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झूलत स्यामा स्याम कोटि-रति-काम-प्रभाधर, थाई रति अरु रस सिँगार जनु धारि अंग वर । कै सुखमा सौंदर्य अनूप रूप रचि राजत, मृदुल माधुरी औ लावन्य ललित कै भ्राजत ॥ ३४ ॥ सुकृति-विभूति भाग-वैभव कीरति जसुमति के, पुन्य-प्रभा-प्रभाव वृषभानु नंद गोपति के। सुख-संपति औ परम प्रान-धन ब्रजबासिनि के, सिद्धि-रासि तप-तेज-तरनि जावत जोगिनि के ॥ ३५ ॥ सुभ सोभा सौभाग्य सुभग संकर-उर-पुर के, सकल सुमृति अरु बेद-सार सरनालय सुर के । कलपलता चिंतामनि चारु सुकवि रसिकनि के, जिय जानत न कहात कहा अनन्य भक्तनि के ॥३६॥