पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३४३

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चाह भरे चाहन की चरचा चलावै कौन, सेसहू न पावै कहि एतौ मुख पाइ कै । गरव रित है जब चेटक-निधान कान्ह, तो तन चितैहै नैकु मुरि मुसकाइ कै ॥२९॥ बाल वन-केलि लाल देखन चलौ जू दौरि, औरै और ना तो सुख-लाँक लुने लेल है। कहै रतनाकर रुचिर रस-रंग देखि, भुंग भाँवरे दै भूरि भाग गुने लेत हैं । भूलि भूलि कलित कुलंग जुरि दंग भए, बानी-बीन बिसद कुरंग सुने लेत हैं। नम-जल-बिंद मुख-चंद की अमंद पेखि, लेखि सुधा-सीकर चकोर चुने लेत हैं ॥३०॥ C प्रान पूरि गहब गलीचा-बनी मूरति हूँ, पाइ को परस पाइ छरकन लागै है। कहै रतनाकर चकोर चित्रहू को चाहि, आनन-अमंद-चंद फरकन लागै है। तन की सुबास फरिया के फबै फूलनि सौं, पदुम-सुगंध-रासि ढरकन लागै है। अधर सुधा सौं सनी बात को प्रसंग पाइ, बेसरि-मयूर-मंजु थरकन लागै है ॥३१॥