पृष्ठ:रश्मि-रेखा.pdf/७९

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रश्मि रेखा ढरक बहो मेरे रस निर्झर इस सूखे अग-जग-मरुथल में हरक बहो मेरे रस निझर अपनी मधुर अमिय धारा से पाषित कर दो सकल चराचर ना जाने कितने युग युग से प्यास है जीवन सिकता कण मन्वन्तर से अतर में होता है उदाम तृषा-रण निपट पिपासाकुल जड़-जगम प्यास भरे जगती के लोचन शुष्क कण्ठ रसहीन जीह मुख रुद्ध प्राण सतत हृदय मन मेटो प्यास भास बीवन का लहरे चेतन सिहर सिहर कर इस सूखे अग-जग मरुथल में ढरक बहो मेरे रस निझर ।