१०६ सकता है, अन्य माधनो द्वारा नहीं। नाटको से मनोरंजन तो होता ही है, मानवी विचारों का सूक्ष्म-से सूक्ष्म अंश भी सामने आ जाता है। मेरा विचार है सबसे पहले संसार में इस बात को महामुनि भरत ने सोचा, क्योकि उनका नाट्य-शास्त्र शायद इस विषय का पहला ग्रथ है । उन्होंने अपने ग्रंथ मे नाटक-सबधी सम्पूर्ण वातो का पूर्ण विवेचन कर दिखाया है. और उमसे संबंध रखनेवाले प्रत्येक विपय का विशद वर्णन भी किया है। रस की कल्पना उन्होंने ही की है, और अनेक मानसिक सूक्ष्म भावों का विश्लेपण भी उन्ही की लेखनी का कौशल है। उन्होंने स्थायी भाव और सचारी भावो का वर्णन तो किया ही है, नायक-नायिका संबंधी अनेक भावो और विचारो की सुंदर व्याख्या भी की है, उद्देश्य केवल मनोभावो का यथार्थ पाठ पढ़ाकर समाज का मंगल' साधन ही है। नाट्य-शास्त्र के कुछ अध्यायो मे उन्होंने जिस प्रकार नायक-नायिकाओं के भेद बतलाकर उनके सूक्ष्म मानसिक भावो का चित्रण किया है, वह दर्शनीय है। उसमें जो कुछ वर्णन किया गया है, मैं समझता हूँ वह मनोविज्ञान विषयक बहुमूल्य सामग्री है। मेरा विचार है, रस और नायिका विभेद आदि के पहले प्राचार्य वे ही है। अग्निपुराण मे उनके विपय मे यह लिखा है-'भरतन प्रणीतत्वाभारतीरीति- उत्र्यत' इससे ज्ञात होता है, कि वे उसी काल मे हुए जिस काल मे व्याकरण के आचार्य गौतम आदि हुए हैं। उस काल में जिन विषयो का विवेचन हुआ है, वैज्ञानिक रीति से और बड़ी ही गंभीरता से हुआ है, इसीलिये नाट्य-शास्त्र का प्रत्येक वर्णन भी इसी रंग मे डूबा हुआ है। नाट्य-शास्त्र के छठवे अध्याय में रस का और सातव अध्याय मे भावों का वर्णन है । इन दोनो मे आट रमा और विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावो का बड़ा सग्स और व्यापक निरूपण है। वे लिखते है- "तत्राप्टौ भाव स्थायिनः । प्रयस्त्रिगळ्यभिचारिणः । अटो सालिकाः ।
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