१११ उद्वेग पंचमे प्रोक्तो विलाप. पष्ठ उच्यते । उन्माद. सतमे नेयो भवेद् व्याधिस्तथाष्टमे ।। नवम जडता चैव मरणं दशमे भवेत् । बाइसवे अध्याय मे हावो का वर्णन इस प्रकार किया गया है- लीलाविलासो.याच्छत्तिविभ्रमः किलकिचितम् । मोहायित कुट्टमित विनोको ललित तया ॥ विविहृतश्चेति सयुक्ता दश स्त्रीणा स्वभावजा. । इसी प्रकार से किसी न किसी रूप में नायिका भेद की समस्त सामग्री इस ग्रंथ मे मिल जाती है। नायक, नायिका, सखा, सखी और दूतियो के भेद, उपभेद और अवस्थाओं का इतना विशद वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है कि श्रव्य-काव्य ग्रथो मे उनका उल्लेख तक नहीं मिलता । हॉ, छॉटकर कुछ नायक, नायिका, मखा, सखी एवं दूतियो के भेद-उपभेद को उनमे स्थान मिला है, यत्र-तत्र कुछ विशेष बाते भी लिखी गई हैं। कहने का प्रयोजन यह कि नायिका भेद का उद्गम स्थान नाट्य-शास्त्र ही है। जो नाट्य-शास्त्र लिखता है यत्किंचिल्लोके शुचिमेध्यमुज्ज्वलं दर्शनीय वा तच्छ गारेणोपमायते' वह नायिका भेद को कभी ग्रहण न करता, जो उसमे अभव्य भावना होती। वास्तव मे उसने लोकहित दृष्टि ही से उसका निरूपण किया है और उसको लिखकर साहित्य के उस अंग की पुष्टि की है, जिसके अभाव मे उसका शरीर पूर्ण सशक्त न बन सकता। नायिका भेद का कुछ वर्णन अग्निपुराण में भी है, परंतु साहित्य- दर्पण मे उसका पूर्ण विकाश देखा जाता है। मैं समझता हूँ आजकल जिस प्रणाली से नायिका विभेद लिया जाता है; उसके आदि प्रवर्तक साहित्यदर्पणकार ही हैं। रसमंजरी में साहित्यदर्पण की ही छाया दृष्टि- गत होती है। यह ग्रंथ ईसवी मोलहवी शताब्दी का है और केवल नायिका भेद पर लिखा गया है। ग्रंथ अच्छा है आधुनिक प्रणाली का आदर्श है । उसमे साहित्यदर्पण से कहीं-कहीं कुछ भिन्नता है, पर नाम
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