१२२ रमणीयता हो, वही कविता अथवा काव्य है ।। कवि कर्म करनेवाले यह. भली-भॉली जानते हैं कि ऐसी रचनाएँ श्रेष्ठ और सुखमय अवसरों पर ही हो सकती है और वह भी उन मस्तिष्कों से जो सर्वश्रेष्ठ और दृढ़तम हों । क्या ये सिद्धात कला की ओर ही अगुलिनिर्देश नहीं करते ? क्या इन वाक्यों के पठन से इस बात की पुष्टि नहीं होती कि कविता वास्तव में एक कला है ? क्या कला की जॉच कला की दृष्टि से हो न होनी चाहिये ? वास्तविक बात यह है कि कला की इयत्ता कला में ही परिमित होती है, कला की सफलता और पूर्णता कला की ही निर्दोषता पर निर्भर है। विकलाग कला, कला हो सकता है, किंतु वह निर्दोष नहीं कहा जा सकती। इसलिये कला की महत्ता कला की सवागीण पूर्ति पर हा अवलबित है । यदि किसी चित्रकार का बनाया कोई नग्न चित्र हस्तगत हो तो, हमको नग्नता चित्रण-चातुरी पर ही दृष्टि डालनी होगी, उसकी सवोंगीण पूर्ति देखकर ही यह मीमासा करनी पड़ेगी कि चित्रकार चित्रण-कला में पारगत है या नहीं। उसमें अश्लीलता हो, अभव्यता हो, आदर्शनीयता हा, ऐस स्थान हों जिनको सलज्ज ऑखें न देख सकें, कितु उन्हींसे उनकी शोभा है, वे ही उस चित्र की पूर्णता के साधन हैं । वे जितना ही पूर्ण होंगे, जितनी ही स्पष्टता के साथ दिखलाये गये होगे, उतले ही चित्रकार के कौशल और उसको सूक्ष्म निरीक्षण-शक्ति के प्रदर्शक होंगे। चित्रकार के चित्रण-कला की पराकाष्ठा के लिये इतना ही पर्याप्त है । उपयोगितावाद उसके अतर्भूत नहीं, अतएव चित्र की परीक्षा के समय उस पर दृष्टि डालने की भी आवश्यकता नहीं। चित्रकार चित्र को ठीक-ठीक चित्रण करके ही सिद्धि लाभ करता है और यहीं पर उसके कार्य की समाप्ति हो जाती है। परीक्षक भी उसकी कृति की परीक्षा यहीं तक कर सकता है, और उसीके आधार से उसको योग्यता की सनद दे सकता है, आगे बढ़ने का उसको अधिकार नहीं । मैं जब कला की कसौटी पर नायिका भेद की कविता को कसता! ,
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