पृष्ठ:रसकलस.djvu/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२६ , मनस्तुष्टि का कारण भी होता है। जो संमान चाहता है, उसको दूसरो का स्वयं संमान करना चाहिये । पतिपरायण स्त्रियाँ स्वयं पति द्वारा कम पाहता नहीं होती । स्त्री पुरुप का संबंध इतना घनिष्ठ है कि वे नीरक्षीर समान संमिलित रहते हैं। उनमे भेद-भाव कम होता है। कोई सेवा ऐसी नहीं, जिसे स्त्री पुरुष की और पुरुष स्त्री की न कर सके । हास विलास, आहार विहार मे वे दो शरीर एक प्राण होते हैं। फिर भी आर्य ललनाओ का पति मे पूज्य भाव होता है। इस पूज्य भाव के उदाहरण भी नायिका भेद मे कम नहीं मिलते। जहाँ कहीं इस भाव का निरूपण पाया जाता है, वहाँ पर आर्य आदर्शों एवं कुल-ललनाओ के चरित्र की उज्ज्वलता का बड़ा सुंदर विकाश देखा जाता है। निन्न- लिखित पद्यों में ऐसे भावो का वड़ा पवित्र चित्रण है- फूल्न सों वाल की बनाइ गुही वेनी बाल, भाल दीन्हीं वेदी मृगमद की असित है। अग अग भूस्खन बनाइ व्रजभूखन जू., वीरी निज करते खवाई अति हित है। है के रस बस जब दीवे को महावर के, 'सेनापति' स्याम गह्यो चरन ललित है। चूमि हाथ नाह के लगाइ रही श्रॉखिन सों, कही 'प्रान प्यारे यह अति अनुचित है।' .. अंग राग और अंगन, करत कछू बरजीन । पै मेंहदी न दिवाइही, नुमसा पगन प्रबीन । खान पान पीकृ करति, सोवति पिछले छोर । प्रानपियारे ते प्रथम, जगति भावती भोर ॥ धरती न चौकी नग जरी, याते उर में लाइ । छोह परे परपुरुष की, जनि तिवधर्म नसाइ । ६