पृष्ठ:रसकलस.djvu/१५

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खड़ी बोली का संचार कर युगातर ही उपस्थित नहीं कर दिया, वरन् खड़ी बोली को भी कृष्ण-लीला के सुधारस से सिंचित कर सजीवन रस प्रदान किया है। इतना ही नहीं, खड़ी बोली की कविता-कामिनी को भी उन्होंने सुधेय गेय गोविंद-पदारविद-मकरंदानंद - सेविनी मलिंद-महिपी होने का सुअवसर दिया और इस प्रकार उसे सौभाग्य शालिनी भी बनाया है। सस्कृत सरस पद-विन्यास सयुक्त, भावमय, सु- प्रवृत्ति-संपन्न, सुवर्ण-वृत्तालंकृत और मोहन-मन-मोहिनी बनाकर उन्होंने सदा के लिये उसे जिस सरस सुमनासन पर बिठला दिया है वह भी सर्वसुलभ नहीं।

जिस प्रकार “प्रिय-प्रवास” के वाणी-विलासकर अनुपम आवास में आपने लोकोपकारादि अन्य, म्वभावजन्य, गेय गुणों को, विशद विकाश-प्रकाश देनेवाले, नये न्यारे रम्य रंगों से अनुरंजित, विविध विचार-विधि-व्यंजित, ब्रजेश के विचित्र चारु-चित्र चित्रित कर, समयानुकूल मजु-मौलिकता दिखलाई है, उसी प्रकार इस “रसकलस” में भो देश-कालोपयुक्त, युक्तियुक्त, प्राश्चात्य दुर्गुण-विमुक्त आर्यावर्तीय सभ्यता-सस्कृति-सुकृति सूचक, ध्रुवधार्य, आर्य कार्य के आदर्श उपस्थित कर, ब्रजभापा को प्राचीन रचना - परंपरा में, भव्य रूपेण नव्य-मौलिकतामयी जीवन स्फूर्ति के द्वारा उसको अपूर्ति में पूर्ति के लाने का भी सफल प्रयास किया है। कतिपय नई नायिकाओं की भी आपने देश-कालानुकूल मौलिक कल्पना को है-यथा देश-प्रेमिका, जाति-सेविका आदि, जो सराहनीय एवं अनुकरणीय है।

नायक-नायिका-भेद जैसे विपय पर रचना करते हुए भी आपने शिष्टता (श्लीलता) का सर्वत्र सुंदर और सराहनीय निर्वाह किया है। वस्तुत यह बड़ा हो कठिन कार्य है और आप ही जैसे सुयोग्य महाकवि का काम है। सर्वत्र भव्य भारतीय नव्य भावनाओं की ही गहरी छाप है, अपने ही समाज के सुदर-स्तुत्य आचारो-विचारों की महत्ता-सत्ता