पृष्ठ:रसकलस.djvu/१६२

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अति खीन मृनाल के तारहुँ तें तोह ऊपर पांव दै श्रावनो है। सुई वेह ते द्वार सॅकीन तहाँ परतीत को टाहो लदावनों है। कवि बोधा अनी धनी नेजहुँ ते चदि तापै न चित्त डगावनी है। यह प्रेम को पथ कराल तखी तरवार की वार वै धावनो है || १ || कोऊ कदो कुलटा, कुलीन, अकुलीन कहो, कोऊ नदी रकिनि, कलकिनी, कुनारी, हौं । कैसो परलोक, नरलोक, वर लोकन में, लीनी में अलीक, लोक लोफन ते न्यारी हो। तन जाव, मन जाव, देव गुरुजन जाव, जीव क्यों न जाव टेक टरति न बारी है। वृदावन बारे बनवारा के मुकुट पर, पीतपट वारी प्यारी मूरति पे बारी पएक विजातीया परकीया की बाते सुनिये- सुनो दिल जानी मेरे दिल की कहानी तुम, दन्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी में। देव पूजा ठानी में निवाज हूँ भुलानी तजे, कलमा कुरान सारे गुनन गहुँगी मैं। साँवरा सलोना मिर ताज दिए कुल्लेदार, तेरे नेह दाग में निदाग हा दहूगी मे। नंद के कुमार पुरवान तांदी सूरत पै, ताच नाज प्यारे हिंदुआनी हो रहूँगी मैं ॥ ३ ॥ क्यों इन आखिन सो निरसक है मोहन को तन पानिप पीजै । नेकु निहारे कलक लगै इहि गाँव से कहो कैसे के जीजै । होत रहै मन यो मतिराम कहूँ बन जाय चसो तप कीजै । ई बनमाल हिए लगिये अ है मुरली अघरा रस लीजै ॥ ४ ॥