पृष्ठ:रसकलस.djvu/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५५ - संस्कृत के कुछ महाकवियो ने भी ऐसा किया, और ब्रजभापा के अनेक कवि एवं महाकवियो ने भी। महाकवि कालिदास की कुछ रचना अश्लील है । कुमार संभव के अष्टम सर्ग मे उन्होने पार्वती देवी के साथ भगवान् शिव का जो विहार-वर्णन किया है वह अवर्णनीय था। अनेक संस्कृत के विद्वानो ने इसकी निंदा की है। साहित्यदर्पणकार लिखते है- यो यथाभूतस्तस्यायथावर्णने प्रकृतिविपर्ययो दोपः-यथा कुमारसभवे उत्तमदेवतयोः पार्वतापरमेश्वरयोः सभोगगारवणनम् । "जो जैसी प्रकृति का है, उसके स्वरूप के अनुरूप वर्णन न होने से प्रकृति विपर्यय दोप होता है, जैसे कुमारसंभव मे उत्तम देवता श्रीपार्वती और महादेव का संभोग श्रृंगार वणन करना । आचार्य मम्मट भी यही कहते है- "रतिः संभोग” गाररूपा उत्तमदेवताविपयान वर्णनीया, तद् वर्णनं हि पित्रोः सभोगवर्णनमिवात्यमनुचितम् ।" "उत्तम देवता विपयक संभोग शृगार वर्णन करना योग्य नहीं, उसका वर्णन माता-पिता के संभोग वर्णन समान अत्यन्त अनुचित है।" उनका मेघदूत बड़ा ही अपूर्व ग्रंथ है, वितु कभी-कभी सुरुचि पर उसके द्वारा भी वज्रपात होता है। शृगार-लातका का कोई-कोई पद्य- पुष्प भी जैसा चाहिये वैसा सुगधित नहीं । नैपध हो, चाहे माध, चाहे किरातार्जुनीय-लगभग सभी काव्य-ग्रंथो मे कुछ न कुछ पद्य ऐसे है जो परिमार्जित रुचि के नहीं कहे जा सकत । गीत-गोविद की कोमल कांत पदावली की जितनी प्रशंसा की जावे थोड़ी है, इस विपय में कोई काव्य ग्रथ उसका समकक्ष नही । पद्यो को पढ़िये तो जात होता है कि एक-एक शब्द सुधा वर्पण कर रहा है । काली की दृष्टि से वह अद्वितीय है। कितु इस रस सरोवर मे कुछ एसे भावकमल है, जिनको सुरुचि कमनीय नहीं मानती । नाटको मे प्राय. नादी-पाठ के ऐसे पद्य मिलते है, जो सुरुचि संगत नहीं कहे जा सकते। वास्तविक बात यह है कि .