१६२ लोकलाज खोई। मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। दूसरो न कोई साधा सकल लोक जोई । भाई तजा बधु तजा तजा सग सोई। साधुन सँग वैठि बैठि भगत देख राजी भई जगत देख रोई। अँसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम-वेलि बोई । अब तो बात फैल गई जानै सब कोई । मीरा को लगन लगी होनि हो सो होई ॥२॥ कृष्णगढ़ के महाराज सावतसिंह उपनाम नागरीदास ने राधाकृष्ण- प्रेम-पथ के पांथ वनकर ही राज्य को तृण समान त्यागा और प्रेम-रस निचुड़ती हुई ऐसी सरल कविताएँ की, जिनको पढ़कर आज भी सुधा- रस का आस्वादन होता है । रसखान जाति के मुसलमान थे, उन पर युगल-स्वरूप की माधुरी ने ऐसा जादू डाला कि वे अपना धर्म त्याग कर वैष्णव बन गये और ऐसी सच्ची वैष्णवता दिखलाई कि गोस्वामी विट्ठलनाथ ने अपनी २५२ वैष्णवों की वार्ता में उनको भी सादर स्थान दिया । देखिये, निम्नलिखित पद्यों में उनके हृदय का सच्चा प्रेम कैमा छलका पड़ता है- मानुस हों तो वही रस वान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन । जो पसु हों तो कहा बस मेरो चरौं निव नंद की धेनु मझारन । पाहन हों तो वही गिरि को जो घऱ्या कर छत्र पुरदर घारन । जो खग हों तो घसेरो करौं मिलि कालिंदी कुल कदम्ब की डारन ॥ १ ॥ 1 या लकुटी अरु कामरिया पर राज विहूँ पुर को वजि डारौं । आठहुँ सिद्धि नवो निधि को सुख नंद की गाय चराय विसारौं । आखिन सो रसखान कत्रै व्रज के वन बाग वाग निहारौं। कोटिन हूँ कलधौत के घाम करीर के कुजन ऊपर पारौं ॥ २ ॥
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