२११ . . उनका यह चरित्र देखकर उनके पास ही कुछ दूर पर खड़े हो गये। कितु वे अपनी केलि क्रीड़ा मे इतने तन्मय थे, कि बहुत देर तक उनका ध्यान ही उधर नहीं गया। खेल समाप्त होने पर जब यह बात उनको ज्ञात हुई, तो वे हँस पड़े। बोले, आशा है आपके यहाँ भी लड़के होगे। इसीको कहते हैं वेद्य विपय का तिरोभाव । इसी तन्मयता का चित्र महात्मा सूरदासजी किस सहृदयता से खींचते हैं, देखिये। अंतिम पद्य मे 'श्याम को मुख टरत न हिय ते' बड़ा मार्मिक है- आँगन स्याम नचावही जसुमति नँदरानी। तारी दै दै गावही मधुरी मृदु बानी पायन नूपुर वाजई कटि किकिनि कुजै । नन्हीं एडिअन अरुनता फल बिब न पूजै । जसुमति गान सुनै स्रवन तव आपुन गावै । तारि वजावत देखिकै पुनि तारि वजावै । नाच नचि सुतहिं नचावई छबि देखत जिय ते । सूरदास प्रभु स्याम को मुख टरत न हिय ते । रस का परिपाक ब्रह्मानंद समान अनुभूत होता है, इसकी वास्तवता चिंतनीय है । बीभत्स रस एवं भयानक और रौद्र रस में इसकी चरितार्थता ताश नहीं होती । हॉ। शात, शृंगार, करुण, अद्भुत और विशेप दशाओं मे हास्य और वीर मे भी इस लक्षण की सार्थकता हो सकती है । भक्तिरस मे तो यह लक्षण पूर्णता को पहुंच जाता है; वत्सलरस मे भी उसका पर्याप्त विकाश दृष्टिगत होता है। संसार मे जो आनंद-स्वरूप परमात्मा का कोई मूर्तिमान् आकार है, तो वह बालक है। ब्रह्म के संसार से निर्लिप्त होने का भाव जो कहीं मिलता है, तो बालक मे मिलता है। दुःख सुख में सम वालक ही देखा जाता है, निरीहता उसीमे मिलती है। फिर वात्सल्य रस ब्रह्मानंद-सहोदर क्यो
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