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पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८

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भूमिका

रस-निर्देश

रस शब्द अनेकार्थक है, व्युत्पत्ति इसकी ‘रस्यते इति रसः’ है, रस शब्द अनेकार्थक है, व्युत्पत्ति इसकी ‘रस्यते इति रसः’ है, जिसका अर्थ यह है कि जो चखा जावे अथवा जिसका स्वाद लिया जावे वह ‘रस’ है। जब हम कहते है, ‘इनके गले में अथवा इनकी वातो मे बड़ा रस है तो उस समय इसका अर्थ मधुरता और मिठास होता है। जब राका-मयंक को देखकर हम कहने लगते हैं, ‘वह रस बरस रहा है। उस समय इसका अर्थ आँखो को तर करनेवाला कोई पदार्थ होता है, चाहे उसको सुधा कहें या और कुछ। जव आम-अंगूर खाते हैं, ईख को चूसते हैं और उस समय यह कह उठते हैं कि इनका रस कितना अच्छा है तब रस का अर्थ वह तरल पदार्थ होता है जो उनमे भरा मिलता है। हरे पत्तो को निचोड़ने पर उनमें से हरे रंग का पानी की तरह का एक पदार्थ निकलता है उसको भी रस कहा जाता है, जैसे, आम अथवा सुदर्शन के पत्ते का रस। खट्टा, मीठा खारा, कडबा, तीखा, कसैला――इन प्रसिद्ध छः रसो को कौन नहीं जानता? ये भी अपनी अलग सत्ता रखते हैं। वैद्यक के रस भी विशेष अर्थ के द्योतक हैं, कभी उनका प्रयोग एक शरीर-संबंधी धातु के विषय में होता है, कभी रासायनिक रीति से तैयार हुई कुछ औषधी के लिये। जब रहीम खॉ खानखाना के इस दोहे को पढ़ते है――

‘कह रहीम कैसे निभे केर-वेर को सग?

व टल्त रस आपने उनके पाटन अग।।”


तो ज्ञात होता है कि रन का अर्थ उमंग और मौज भी है। वेद मे