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निर्वेद आदि भाव अनुकूलता से व्याप्त रहते है उन्हें विशेष रीति से संचरण करते देखकर संचारी कहा जाता है।

मानव के हृदय में वासना अथवा संस्कार-रूप से अनेक भाव सदा उपस्थित रहते हैं, वे किसी कारण-विशेष द्वारा जिस समय व्यक्त होते है उसी समय उनकी उपस्थिति का पता चलता है। इन भावों में जिनमे अधिक स्थिरता और स्थायिता होती है, जो किसी भी काव्य-नाटकादि में आद्योपान्त उपस्थित रहते है, प्रधानता और प्रभावशालिता में ओरो से उत्कर्ष रखते है, साथ ही जिनसे रस-रूप में परिणत होने की शक्ति रहती है, उनको स्थायी भाव कहा जाता है। यथा-


रसावस्थः परंभावः स्थायिता प्रतिपद्यते।

जो भाव रस-अवस्था को प्राप्त हो, वही स्थायी होता है। रसगंगाधर में स्थायी भाव के विषय में यह लिखा गया है—


विरुद्धेरविरुद्धेर्वा भावैविच्छिद्यते न यः।
आत्मभाव नयत्याशु स स्थायी लवणाकरः॥
चिर चित्तेऽवतिष्टन्ते सम्वव्यन्तेऽनुबन्धिभिः।
रसत्त्व ये प्रपद्यन्ते प्रसिद्धाः स्वाविनोऽत्र ते॥
सजातीयविजातीयेर तिरस्कृतमूर्तिमान्।
यावद्रस वर्त्तमान, स्थायिभाव उदाहृत.॥

जो भाव विरोधी एवं अविरोधी भावों से विच्छिन्न नहीं होता, किंतु विरुद्ध भावों को भी शीघ्र अपने रूप में परिणत कर लेता है, उसका नाम स्थायी है, उसकी अवस्था लवणाकर के समान होती है, जो प्राप्त समस्त वस्तुओं को लवण बना लेता है॥१॥ जो भाव बहुत समय तक चित्त में रहते हैं, विभावादिको से संबंध करते हैं, और रस रूप बन जाते है, वे स्थायी कहलाते हैं॥२॥ जो मूर्तिमान् भाव सजातीय और विजातीय भावों से तिरस्कृत न किया जा सके और जब तक रस का आस्वादन हो तब तक वर्त्तमान रहे, उसे स्थायी भाव कहते हैं॥३॥