पृष्ठ:रसकलस.djvu/४०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस १५४ उदाहरण मुग्धा दोहा- जकी छकी नवला रहति छिपि छिपि बितवति काल । तन मैं छबि छहरत निरखि छनौं न छोरत लाल ॥१॥ छाँह बचावति लाड़िली छोरत ना अलि - बृद । तऊ बदन - अरबिंद के लालन भये मिलिंद ।। २॥ मध्या दोहा- लाल-गरे परि ललित बनि लहि सु - बास सब काल । फवि फैलावति ही रहति फूल - माल सी बाल ॥ १॥ सकुच - भरी पति - करन ते सज्जित है सरसाति । परी किन्नरी सी रुचिर - सेज सेज परी दरसाति ।।२।। प्रौढ़ा सवैया- काज परे हूँ न जाय कवौं कहूँ मो पति आपनी आनि अरो रहै। नेकन मानत औरन की 'हरिऔध' को मेरो ही ध्यान खरो रहै। साजत साज सँवारत भूबन सुंदर भावन मोहिं भरो रहै। भूख औ प्यास बिसारि सदैव अवास मैं मेरे ही पास परो रहै ।।१।। परकीया संवया- अरी और तियान ते सोहैं परे हूँ कवौं अपनो हग जोर नहीं । अनखाय नहीं अपमान किये रस हूँ मैं कवौं बिस घोर नहीं । 'हरियोध' हमारो हजारन मैं हमरे हित ते मुँह मोर नहीं। छकि मो छवि ऊपर टॉह की भॉति छबीलो हमैं छन छोर नहीं ॥१||