पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६५

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रसकलस २१८ सवैया- भावत ना सरपेच असुंदर कान के कुडल को कहती है। वाजू धरै भुज मैं न भटू कर सों कल-कंकन ना गहती है । माह मैं ए 'हरिऔध' मनोहर - हार हूँ ना उर पै बहती है। कठ-सिरी मन मैं न टिकै कटि-किंकिनी ते नटि कै रहती है॥५॥ तीसी लसी बहु-खेतन मैं अपनी कुसुमावलि सों छबि छावत । पात चने के हरे हरे कोमल काकी नहीं अखिया बेलमावत । ए 'हरिऔध' प्रसून केराव के लै चित काहि नहीं ललचावत । मानस काको नहीं सरसे सरसों के सुहावने फूल लुभावत ॥ ६॥ मजुल - वायु लगे बल खाइ बिलोचन मॉहि समाय रही हैं। ओस की बूंदन सों सरसाय सहेलिन मॉहि सोहाय रही हैं। ए'हरिऔध' किती तितिलीन को प्यार से पास बुलाय रही हैं। पीरे - प्रसूनन सों बिलसी उलही रहरै लहराय रही हैं ।। ७ ।। दोहा- सिता नहीं प्यारी लगति ससि हूँ करत स-भीत । निसि सियराये ही बढ़ति सिसिर समय को सीत ।।६।। मैं हिम-सर सो लगत सिहरत सकल - सरीर । सी सी कहि सिसकत न को परसत सिसिर-समीर ॥४॥ परि साँसत मैं सीत की हरति रहति है ऊब । हरे हरे निज • दलन मिस हरे हरे कहि दूब ॥ १० ॥ लोक सीत - सॉसत सहत दुरि दिन वितवत घाम । सिसिर मॉहि कुहरा परे मचत महा कुहराम ।। ११ ।। ओस - सीकरन मॉहि दुरि सीत सहति भरि ऊब । हरे हरे कोमल - दलन - वलित दूवरी - दूब ।। १२ ।। उर