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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५३३

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रसकलस २८६ 'हरिऔध' कोटि कोटि दिवि-पति देव कोटि कोटि धाता पाता अंक मैं परे अहैं। सारे - बिभा-वारे के समूह को सहारे दै दै भारे - भारे - भूरि-भानु नभ मैं भरे अहै ।। ४ ।। किधौं हैं अनत मैं अनत-वायु - यान उडे प्रकृति - बधू के किधौं लोचन के तारे हैं। नदन - बिपिन तरु के हैं किधौं दिव्य-फल किधौं कल्प - पादप प्रसून - पुंज ग्यारे हैं । 'हरिऔध' किधौं हैं बिमान दिवि देवन के उडहिं पतंग के पतगम ए सारे है। रतन पसारे हैं कि पारे के सॅबारे - पिंड अनल - अँगारे किधौं न्यारे - नभ-तारे हैं ॥५॥ सागर, सरित, सर, बन, उपबन, मेरु, धन, जन, बिपुल वहन कै अभ से हैं। पल पल भ्रमत रहहिं विकसहि भूरि दिव्यता - निकेतन वतावे किमि कैसे है 'हरिऔध' लाख लाख कोस को कलेवर है तारक - विमान मजु श्राप आप - जैसे हैं। बडे - वेग - वान छवि - मान तेज के निधान आन नभयान, ना जहान माँ हिं ऐसे हैं ॥६॥ कियौ नील- अंबर मैं सलमा, सितारे टॅके किधौं नभ - अक मैं अनंत जोति जाल हैं। स्यामल चॅटोवे के किधौं हैं चमकीले-बिंदु कियौं मान - सर मैं कलोलत मराल हैं।