पृष्ठ:रसकलस.djvu/५३५

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रसकलस २८८ वाको तेज जित को हरत तम - तोम नाँहिं तेज बितरत है तरनि हूँ तहाँ नहीं । 'हरिऔध' जहाँ पै न रस सरसत वाको सरस मिलत सरि सर हूँ वहाँ नहीं। तीनों लोक मॉ हिं रंग रंग की कलायें करि मन की तरंग है तरंगित कहाँ नहीं ॥११॥ मरो जन हेरत न भुवन - बिभूति काँहि जोहत न भानु जोति भव मैं पसारे है। सूंघत न सुनत न गहत कहत कछु काठ - सम रहत विचारन ते न्यारे है। 'हरिऔध' नॉहि अनुभवत परस पौन सारी - अनुभूतिन ते रहत किनारे है । जीवन - बिहीन - जन को न जग-भान होत जगत की सत्ता जीव - जीवन सहारे है ।।२।। कहूँ तरु हिलत लसति तृन - राजि कहूँ कुसुम खिलत कहूँ वेलि उलहति है। नाचत मयूर कहूँ गान है करत भंग कलित कथान कहूँ सारिका कहति है। 'हरिऔध' कतहूँ कलोलत हैं मृग - यूथ प्रकृति - वधूटी कहूँ नटति रहति है। कहूँ रंग रंग के कमल सों लसे हैं सर कतहूँ तरंग - वती सरिता वहति है ।।३।। कहूँ रस - धारा कहूँ वहति रुधिर - धारा कोऊ कुम्हिलात कोऊ कंज लौं खिलत है।