३०३ रस निरूपण बज्र-प्रहार कवित्त- पाइ कै बिजाति-पग-लेहन सरग-सुख कैसे जाति-हित के नरक मॉहि परिहै। करि कै कुटिल-नीति-सरस-सुधा को पान कैसे ना सुनीति की सुरा को परिहरिहै। 'हरिऔध' तोरत जो गगन-तरैया अहै कैसे दृग-तारन मैं जोति तो बितरिहै। कुल को कलंक अकलंकता को बानो अहै हिंदू - कुल बिपुल - कलंक कैसे हरिहै ॥ १ ॥ कैसे तो कपूत ह सपूत - सिर - मौर हैहै भारतीयता के मूठे 'भाव' न दिखे है जो । देस प्रेम-पथ को पथिक क्यों कहै है कूर आपने समाज मैं न पावक लगैहै जो। 'हरिऔध' क्यों कुल-कलंक पैहै नेता-पद काढ़ि के करेजो जाति को न कलपैहै जो। आप हूँ पिसाई मॉहि परिकै पिसैगो खल पिसे जात हिंदुन को औरो पीसि दैहै जो ॥२॥ जा कुल के हैं कैसे वा कुल के काल है हैं गाज बनि आकुल-समाज क्यो परिहैं। कैसे भारतीयता बहाने भार - भूत रहि जाति-भव - विदित - विभूति कॉहि हरिहैं। 'हरिऔध' नेता कहवाइ क्यो अनीति कैहै रुधिर - पिपासित - उदर कैसे भरिहैं ।
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