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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५५१

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रसकलस ३०६ निकसै मुँह ते बात किमि जाति गई जब चेति । बात रखन की लालसा बात बनन नहि देति ॥२॥ जा नेता की मति हरत नेतापन अनुराग । सो न परत जो नरक मैं तो है नरक अभाग ।। ३ ।। दिल के फफोले दोहा- कैसे तिनकी लालसा लहू - भरी नहि होय । जिनकी मुंह - लाली रही कुल ललना को खोय ।। १ ।। ते किमि रखिहहि जाति - पति कितनाहूँ लें कॉखि । ऑखिन के तारे छिने जिनकी गई न ऑखि ॥२॥ बेगानोपन लहि बने जो बेगाने माल। हिंदू - हित करें वे हिंदू - कुल - बाल ॥३॥ वे क्यो देखें जाति - दुख देखि देखि दिन रैन । द्वै द्वै अँखियन के अछत जिनकी अखियों हैं न ।। ४ ।। इतनो हूँ समझत नहीं तऊ बनत है जाको कहत अछूत हैं वामैं कैसी कैसी छूत ।। ५।। माननीय महंत दोहा- कैसे वनें महत नहिं महि मै महिमा - वान । सकल करति रखति रखेली मान ।। १ ।। बात न काहु की सुख के साज अनत । जाय महंती या रहै मन की करत महत ॥२॥ वार - विलासिनि सों विलसि करि कमला सों हेत । चाहत सरग महत नहिं यहीं सरग सुख लेत ।। ३ ।। पूत । दान चेली मानत