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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६३

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रसकलस ३१४ एक टूक रोटी-हित बतिया दो टूक कहे काहू को करेजो टूक टूक ना करत है ॥१२॥ कमनीय-रुचि को कलंकित करत नाहि कोमलता कोमल हृदै की ना हरत है। बनि बनि कीट ना बसत सुमनन माँहि पावक न भोरे भोरे भाव में भरत है। 'हरिऔध' लोभ-होन ललित ललक-वारो काहू के न अनुकूल - काल ते लरत है। लाल लाल ऑखें करि लाल हैन काल होत लहू नॉहिँ लोक-लालसान को करत है ।।१३।। वेद की बिभूति ते बिभूति-मान बनि बनि • लोक - बंदनीय - बर - बिरद बरत है। गौरव गहत गाइ गाइ गौरवित - गुन ज्ञान - रवि पाइ उर - तिमिर हरत है। 'हरिऔध' धर्म-वारो सारो मन - मानो छोरि मुनिन - मतन काहिं मनन करत है। भारत के भूत-हित भरे भाव - पंकज पै मत्त मन भौंर भूरि - भाव” भरत है ॥१४॥ महिमा महतन की मति को करति मंजु संतन को संतता असंतता हरति है। पावनता परसे अपावतना दूर होति देव - रुचि दुरित - दुरतता दरति है। 'हरिऔध' मानवता भावुकता भूति बनि भावन में लोक - हितकारिता भरति है।