पृष्ठ:रसकलस.djvu/५९९

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रसकलस ३५० तरु हैं जरत धू धू धू धू हैं जरत मेरु धाँय धाय बरत धरातल को गात है। 'हरिऔध' ठौर ठौर धधकत आग ही है ज्वाल मैं जरति जीव - जंतु की जमात है। महा हाहाकार है सुनात ओक - ओक माँहि प्रलय जराये लोक लोक जरो जात है।॥ १४ ॥ करको प्रहार तारकावलि को लोप कैहै दिवि को दलगो दिवा - पति को मिटावैगो। नाना - अंग - चालन दिगंतन को कैहै चूर ध्वंस के धरातल को धूरि मै मिलावैगो । 'हरिऔध' होत महा - काल को करालनृत्त सहस • बदन व्याल - वैभव बिलावैगो । लात लगे टूटिहै अतल - तल पत्ता - सम पल में पताल हूँ को लत्ता उड़ि जावैगो ॥ १५ ॥ धसके धरा सृग - नाद सुने घोर - डमरू - डिमिक भये कोपे महा - काल के सुरासुर सिहरिगे। उच्छलत - बारिधि को वारि विचलित भयो तल धरा - धर विदरिगे। 'हरिऔध' चौदहो भुवन भय - भीत बने कॉपे पच - भूत दसो दिग्गज भभरिगे। कोल गयो डोल काठ मारिगो कमठ हूँ को वैल विललानो व्याल बदन विहरिगे ॥१६॥ हुँकरत वैल के वलूले लौं विलाने लोक फॅकरत फनि के अनत - ओक जरिगे।