पृष्ठ:रसकलस.djvu/६

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विशेष वक्तव्य

'रसकलस' का जन्म देना सामयिक है या नहीं, इसका विचार मासिक वृंद करें। मुझे जो निवेदन करना है, उसे निवेदन करता हूँ। यह सच है कि ब्रजभाषा का वह आदर अब नहीं रहा, कितु यह भी सत्य है कि जबतक वह बोलचाल की भाषा है, तबतक उसमें जीवन उसकी पद अर्चना करनेवाले आज भी पर्याप्त संख्या मे मौजूद हैं, और उस समय तक उपस्थित रहेंगे, जबतक उसके बोलनेवाले धराधाम र विद्यमान रहेंगे। भारतवर्ष की जितनी प्रांतिक भाषाएँ मरहठी, गला, पंजावो और गुजरातो आदि हैं, उन सबमें रचनाएँ हो, भोज- री और मैथिली जैसी बोलियो में कविताएँ लिखी जावें, किंतु ब्रज- पापा का हो सह स्वत्व लोन लिया जावे, ऐसा कहना न्यायसंगत नहीं। जो जिसका प्राकृत अधिकार है, उससे उसको वंचित करना टेढ़ी खीर यह किसी के बूते की बात नहीं । इसलिये यह कहना कि अव ब्रजभाषा में कविता करना झख मारना और समय-प्रवाह के विरुद्ध चलना है, पदि प्रमाद नहीं तो अन्नान अवश्य है। रही शृंगार रस की वात, इस विषय में मुझे यह कहना है, कि क्या शृंगार रस की रचनाएँ इस योग्य कि उनको वक्र दृष्टि से देखा जावे, और उनको कुत्सा की जावे । कदापि नहीं, श्रृंगार रस हो साहित्य का श्रृंगार है, जिस दिन वह इस ौरव से वंचित होगा, उसी दिन उसका सौंदर्य नष्ट हो जावेगा। गार रस पर जो खड्ग-हस्त हैं, वे उसका मर्म जानते ही नहीं; वेअमृत को विप समझ रहे हैं। अश्लील शृंगार रस अवश्य निंदनीय है, फिर हो उस निदा को सीमा है, जहाँ वह किसी कला का अंग होगा, वहाँ सको उसी दृष्टि से ग्रहण करना होगा। जिन्होंने श्रृंगार रस की कुत्सा रने का वोड़ा ले रखा है वे कलेजे पर हाथ रखकर बतलावें कि क्या