पृष्ठ:रसकलस.djvu/६०३

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रसकलस ३५४ 'हरिऔध' बाल बगरे हैं काल - जाल जैसे बार बार अट्ट अट्ट हॅसति रहति है । शव-राशि-कढ़ी रण-भूमि रक्त - धारा मॉहि शव पै सवार शव-वाहना बहति है ।। १ ।। कटी अगुरीन ते सिँगारति रहति गात आँत ते सॅवरि भूरि-गौरव गहति है। मेद मास मन्ना खाइ खाइ कै मुदित होति स्वेद चाटि चाटि स्वाद सौगुनो लहति है। 'हरिऔध' कहै रण-भूमि-सरि-धारा मॉहिं बिपुल-बिनोदित ह भैरवी वहति है। खिलति महा है गज-खाल को बसन धारि लोहू को महावर लगाइ उमति है ।। २ ।। खोपरीन खाइ कै बदन ते बमति ज्वाल रुंड - मुंड - मुडन बिहंडि बिहरति है । पकरि कबंधन करति है रुधिर - पान चबाइ उछरति है। 'हरिऔध' जोरि जोरि जीह गज-वाजिन की पान सम चाबि मोद भावर भरति है। रण-भूमि मॉर्हि भूत-नाथ की बिभूति बनि भूत-लीला भूतन की मडली करति है ।। ३ ।। प्रचुर - करेजन कूकर-समूह अग भग कै भिरत भूरि भरित-उमग काक ऑखि काढि खात है। रुरुआ ररत भूत भीर है करत रव भैरव-निनाद भरो भूतल दिखात है ।