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पृष्ठ:रसकलस.djvu/६०५

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उसकलस ३५८ सौंहैं मुंह कैसे करें है कलंक - मय गाथ । लहू बने लोचन अहैं लहू अहै लहू भरे हैं हाथ ।।२।। ताके चित की वासना तासु चाव कहि देत । अगल बगल अवलोकि के बगल सूंघि जो लेत ।।३।। मैलो मुख मल बमत है जब कबहूँ समुहात । भेद वतावत भीतरी स्वेद-गध-मय-गात ||४|| बोलि अनैसे-वैन जो बरबस बनत बलाय। तो मुंह मैं कोरे पर तुरत जीह सरि जाय ॥५॥