पृष्ठ:रसकलस.djvu/६०७

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रसकलस ३६० 'हरिऔध बात कहा तुच्छ-तन-धारिन की कवौं मेदिनी हूँ मीच-भै ते आँख मीचिहै । सरस-वसंत है बिरस सरसैहै नॉहि बरसि सुधा रस सुधा-कर न सींचिहै ।। १ ।। ऐसी ही लसैगी हरिआरी हरे-रूखन मैं ऐसी ही ललामता ललित लता लहि है। ऐसोई करैगो कूजि कूजि कल गान खग सुमन सुरभि लै समीर मद बहि है । 'हरिऔध' एक दिन तू ही ऑखि मदि है ऐसी ही रहैगी मोद-मयी जैसी महि है। ऐसी ही चमक चारु - चाँदनी चुरैहै चित ऐसोई हंसत मद मंद मद मंद चंद रहिहै ।। २ ।। प्रान बिन ताको तजि भजति सदा की नारि तरसत हुती जाको किन्नरी बरन को। दाहत चिता पै राखि सुदर सरीर वाको जाकी पलिका को पावा हुतो सुबरन को । 'हरिऔध' देखत मसान मॉहि ताको परो जाकी धाक कपत करेजो भू-धरन को । चौर होत हुती जि. मसक निवारन को विते खात देखे नोचि गीदरन को ।। ३ ।। पूजित - सचीस-धनाधीस औ फनीसहूँ के जगदीस ईसहूँ के सीस जो धरी रहै । कामिनी के कंठ कुच करन चरन हूँ की जाते जेवरन हूँ की सुखमा खरी रहै।